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उझकी उझकी लारै छै / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
ई गरमी ई धूप की कहौं
कत्ते मन के जारै छै,
घरोॅ के भीतर बाहर हरदम
तिल तिल करी के मारै छै।
अखनी अखनी धुरी के ऐलौ
पूरा करने काम,
भीषण गरमी से तपलो छी
रूकै कहाँ छै घाम।
पोछी पोछी पागल मन ई
खुद से खुद्दे हारै छै
जीव जन्तु के छाँव कहाँ छै
जैतै कन्ने छाँव कहाँ,
गरमी पसरी बैठलॉे हेना
चलै न पारै पाँव यहाँ
निर्मोही दुश्मनी निभावै
पकड़ी नस के गारै छै।
घरोॅ में बैठी सजनी भावै
रुसलो गोसांय मनाबै,
देह के कपड़ा दुश्मन बनलै
हाड़ मांस सभे सुखाबै।
पड़पड़ धूप पथारी छिटलोॅ
उझकी उझकी लारै छै।