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उठा गढ़वालियों / सत्यशरण रतूड़ी

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उठा गढ़बालियों, अब त समय यो सेण<ref>सोने</ref> को नीछ।
तजा यीं मोह-निद्रा कू अजौं तैं जो पड़ीं ही छ।
अलो! अपणा मुलक की यीं छुटावा दीर्घ निद्रा कु,
सिरा का तुम इनी गेहरी खड़ा मां जींन गेर याल्यें।
अहो! तुम मेर<ref>बाहर</ref> त देखा, कभी से लोग जाग्यां छन,
जरा सी आंखत खोला कनो अब धाम चमक्यूं छ।
पुराणा वीर, व ऋषियों का भला वृतान्त कू देखा,
छपाई ऊँ बड़ीं की ही सभी सन्तान तुम भी त।
स्वदेशी गीत कू एक दम् गुंजावा स्वर्ग तैं भायों,
भला डौंरू कसालू<ref>वाद्य यन्त्र</ref> की कभी तुम कू कभी नी छ।
बजावा ढोल-सणसिंघा, सजावा थौल<ref>मेला</ref> कू सारा
दिखावा देश-वीरत्व भरीपूरी सभा बीच।
उठाला देश का देवतौं सणी, बांका भडू कू भी।
पुकारा जोर से भायों घणा मंडाण<ref>नृत्य समारोह</ref> की बीच।
करा प्यारों। करा कुछ त लगा उद्योग मां भायों,
किलै तुम सुस्त सा बैठ्यां छया ई और क्या नी छ?
करा संकल्प कू सच्चा, भरा अब जोश दिल् मां तुम,
अखाड़ा मां वणा तु सिंह गर्जा देश का बीच।
प्रचारा धर्म विद्या कू, उड़ावा झूट छल सारा
फुरावा सर्व गुण शक्त् यों, करा ज्यांमा बड़ाई छ।
बजावा सत्य कौ डंका सबू का द्वार पर जैक
भगावा दुःख दारिण करा शिक्षा भली जोछ।

शब्दार्थ
<references/>