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उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है / 'सुहा' मुजद्ददी
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उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है
बाहर तिरे घर के तो न दुनिया है न दीं है
हम हैं कि सर-ए-नक़्श-ए-क़दम सैंकड़ों सजदे
वो है कि जहाँ देखिए बस चीं-ब-जबीं है
सहरा में फिराती है मुझे ख़ाना-ख़राबी
ये ढूँढ रहा हूँ कि मिरा घर भी यहीं है
आती नहीं नज़दीक ख़यालों के ये दुनिया
वो बज़्म भी या रब कोई फिर्दोस-ए-बरीं है
ता हद्द-ए-तख़य्युल फ़क़त इक जलवा है या दिल
दुनिया में हमारी न फ़लक है न ज़मीं है
जी भर के ज़रा देख तो लें हुस्न के जलवे
फिर किस को उन्हें छोड़ के जीने का यकीं है
वो दर्द-ए-दुरून जिस्म में यूँ फैल गया है
पड़ता है जहाँ हाथ समझता हूँ यहीं है
रहता हूँ ‘सुहा’ अहल-ए-हरम में भी नुमायाँ
होते हैं इशरे ये ख़राबात-नशीं है