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उठेंगी चिलमनें फिर हम यहाँ देखेंगे किस-किस की / गौतम राजरिशी
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उठेंगी चिलमनें फिर हम यहाँ देखेंगे किस-किस की
चलें,खोलें किवाड़ अब दब न जाए कोई भी सिसकी
जलूँ जब मैं, जलाऊँ संग अपने लौ मशालों की
जलाए दीप जैसे, जब जले इक तीली माचिस की
ज़रा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे
भुला देता हूँ दिन भर की थकन सारी मैं आफ़िस की
सितारे उसके भी, हाँ, गर्दिशों में रेंगते देखा
कभी थी सर्ख़ियों में हर अदा की बात ही जिसकी
हवाओं के परों पर उड़ने की यूँ तो तमन्ना थी
पड़ा जब सामने तूफ़ाँ, ज़मीं पैरों तले खिसकी
उसी के नाम का दावा यहाँ हाक़िम की गद्दी पर
करे बोया फसादें जो ज़रा देखो चहुँ दिस की
अगर जाना ही है तुमको,चले जाओ मगर सुन लो
तुम्हीं से है दीये की रौशनी, रौनक भी मजलिस की
{मासिक आजकल, जून 2010}