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उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे-धीरे / मजरूह सुल्तानपुरी

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उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे-धीरे
मुहब्बत करेगी असर धीरे-धीरे

ये माना ख़लिश है अभी हल्की-हल्की
ख़बर भी नहीं है तुम को मेरे दर्द-ए-दिल की
कहबर हो रहेगी मगर धीरे-धीरे
उठेगी तुम्हारी नज़र ...

मिलेगा जो कोई हसीं चुपके-चुपके
मेरी याद आ जाएगी वहीं चुपके-चुपके
सताएगा दर्द-ए-जिगर धीरे-धीरे
उठेगी तुम्हारी नज़र ...

सुलगते हैं कब से इसी चाह में हम
पड़े हैं निगाहें डाले इसी राह में हम
कि आओगे तुम भी इधर धीरे-धीरे
उठेगी तुम्हारी नज़र ...

(फ़िल्म -- ’एक राज़’ - 1963)