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उठो / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
न यह दिन, न रात अजब संधिकाल
पराभव का शोर और शोर का उत्सव
पृथ्वी विलापरत कत्लोगारत के बीच
मंदिरों से हँसने की ध्वनि
कब्रगाहों पर बढ़ता रूदन
देखने लायक इतना कम कि बंद आँखों में हिंसा
यह कैसी इबादत कि फूल के सीने में रक्त के धब्बे
यह दुःस्वप्न नहीं कि दुबके रहो
उठो! आत्मा के स्पंज में अबेर लो
धूप की उजास, चुटकी भर हवा और भरोसे लायक शब्द
कि खत्म नहीं हुआ सबरा-सब अभी