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उठ रहा है इस धरा से / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'
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					उठ रहा है इस धरा से, 
धूल का गुब्बार कैसा? 
अब मनुज का ही मनुज से, 
निभ रहा व्यवहार कैसा? 
चढ चुकी है गर्द गहरी, 
प्रेम पर, विश्वास के. 
हो गए ओझल नज़र से, 
रास्ते अहसास के. 
सोच में रहता धुँधलका, 
ज्ञान का विस्तार कैसा? 
उठ रहा ...
लुप्त हैं सारे निशां भी, 
प्यार के, सदभाव के. 
छप रहे पदचिन्ह अब तो, 
राह में भटकाव के. 
लक्ष्य ही सम्मुख नहीं तब, 
तीर क्या, मझधार कैसा? 
उठ रहा ...
हर लिया मिट्टी उड़ाकर, 
सूर्य का ताप सब। 
या हरा तुमने किसी का, 
पुण्य औ' प्रताप सब। 
रास्ता छल से भरा गर, 
जीत पर अधिकार कैसा?
उठ रहा ...
	
	