उड़कर आए नीलकण्ठ जी मेरे घर में / केदारनाथ अग्रवाल
उड़कर आए
नीलकण्ठ जी मेरे घर में
दर्शन देकर मुझे रिझाने
मेरे दुख-सन्ताप मिटाने ।
मैंने देखा
किन्तु न रीझा ।
मैंने पूछा —
बनते हो शिव-शम्भू !
कहाँ गया वह जटाजूट ?
कहाँ गई सिर की गंगा ?
कहाँ गया
वह चंद्र दुइज का ?
कहाँ गई मुण्डों की माला ?
कहाँ ब्याल की माल गई ?
कहाँ गया डमरू ?
त्रिशूल अब कहाँ गया ?
नंदी कहाँ ?
कहाँ अर्द्धांगी ?
आ धमके,
विषपायी जैसा स्वाँग दिखाने ।
हटो, हटो,
मैं नहीं चाहता तुम्हें देखना,
तुम्हें देखकर भ्रम में रहना ।
तुम क्या संकट काट सकोगे ?
शक्तिहीन केवल चिड़िया हो ।
विष पीते तो मर ही जाते,
उड़कर यहाँ न आ पाते ।
तुम वरदान भला क्या दोगे ?
खुद फिरते हो मारे मारे ।
शापित हो तुम,
चक्कर-मक्कर काट रहे हो,
तुम क्या दोगे त्राण किसी को ?
भ्रम को पाले पूज्य बने हो,
पूज्य बने तुम,
झूठे मन से हर्षित हो लो,
मुझे न हर्षित कर पाओगे ।
जाओ,
दाना चुगो,
पेट की भूख मिटाओ
शंकर के प्रतिरूप न बनकर
भ्रम फैलाओ,
नहीं ठगो, अब
उड़कर जाओ
झाड़ी-जंगल में
छिप जाओ,
झूठ प्रतिष्ठा नहीं कमाओ ।
रचनाकाल: ३०-१२-१९९१