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उड़कर नहीं देखा ! / ज्योत्स्ना शर्मा
Kavita Kosh से
बीती हुई बातों से....बिछुड़कर नहीं देखा ,
क्यूँ पास में थे पंख फिर उड़कर नहीं देखा ।
वो प्यास से तड़पा बहुत ...शहरी गुरूर में ,
था गाँव में पनघट, मगर मुड़कर नहीं देखा ।
कुछ भी कठिन नहीं था,रही इक भूल हमारी ,
बस एक ने भी एक से ..जुड़कर नहीं देखा ।
बेपर्दगी , गुरबत का दर्द...... झेलना पड़ा ,
जब पाँव ने चादर में सिकुड़कर नहीं देखा ।
ये नफरतों की आग बुझे भी तो किस तरहा ,
आँखों के समंदर ने ...निचुड़कर नहीं देखा ।