Last modified on 4 अप्रैल 2014, at 23:26

उड़ता नहीं निरा भ्रम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

उड़ता नहीं निरा भ्रम-नभमें मिथ्या भावुकताके हेतु।
काम-लोभ-मोहादि विकारों के वश वह न तोड़ता सेतु॥
नहीं कभी आच्छादित कर सकता उसकी मति को अजान।
भोग-विलासावेश, विषय-रतिवश वह नहीं भूलता भान॥
प्रभु मेरे, मैं प्रभु का, प्रभुपद-पद्मोंमें निर्मल अनुराग।
रहता परम जान उसको यह सदा, सर्वथा विमल विराग॥
अतः नहीं छाते उस पर कदापि जगके सब हर्ष-‌अमर्ष।
अपने प्रभु प्रेमास्पद का वह पाता नित्य सत्य संस्पर्श॥
सर्वार्पण कर प्रियतम को, वह रहता नित सेवामें रत।
भोगी-जीवनसे वह रहता सहज इसीसे नित्य विरत॥
नहीं सताती उसे कामना, कभी न ममता, विषयासक्ति।
बढ़ती नित रहती प्रभु-चरणोंमें उसकी नव-नव अनुरक्ति॥
प्रभुके दुर्लभ भावराज्य में दिव्य सदा करता विचरण।
मोह-जगत्‌‌के कभी नहीं छू पाते उसको जन्म-मरण॥
जग में नित्य मरा वह, प्रभुमें पाकर नित्य अमर जीवन।
परम सफल, अति बुद्धिमान है, जानवान, शुचि, वही सुजन॥