भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ती किरणों की रफ़्तार से तेज़ तर / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ती किरणों की रफ़्तार से तेज़ तर
नीले बादल के इक गाँव में जायेंगे
धूप माथे पे अपने सजा लायेंगे
साये पलकों के पीछे छुपा लायेंगे

बर्फ पर तैरते रोशनी के बदन
चलती घड़ियों की दो सुइयों की तरह
दायरे में सदा घूमने के लिये
आहिनी महवरों पर जड़े जायेंगे

जब ज़रा शाम कुछ बेतकल्लुफ़ हुई
बरगज़ीदा फ़रिश्तों के पर नुच गये
रात का टेप सूरज बजा दे अगर
मोम के पाक़ चेहरे पिघल जायेंगे

सुरमई हड्डियों, ख़ाक़ी अश्जार ने
लौटने वालों का ख़ैर मक़दम किया
हमने तो ये सुना था कि इन लोगों पे
चाँद तारे बहोत फूल बरसायेंगे

मुख़तलिफ़ पेच में इक कसी शख़्सियत
याद का फूल बन कर बिखर जायेगी
धूप के चमचमाते हुए हाथ जब
नीम के फूल सड़कों पे बरसायेंगे

(१९७०)