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उड़ती दिशाएँ / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
भरे-पुरे घर आँगन खोखले हुए।
रक्त नहीं हिलता है स्याह-सी शिराओं का,
अंधड़ में पता नहीं, उड़ रही दिशाओं का;
भले भले सिर थामे
सोच रहे, क्यों भले हुए?
पंख कटी चिड़ियों सी घूमती समस्यायें,
प्रतिक्रियायें बाँझिन, छिपती दायें बायें;
साँवला हुआ सूरज-
तम के हैं रँग खुले हुए।
समझौता कोई हो प्रस्तुत हैं नर-नागर,
पीले पत्तों जैसे झर जाते हस्ताक्षर,
पुण्यों से देह
और पापों से मन मिले हुए।
हवा के दबावों से बचने की युक्ति सोचते,
शतुर्मुर्ग जैसे हम-तुम, बालू के ढेर खोजते;
निष्ठा-निष्काशन पर
जोरों से हम तुले हुए।