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उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे / हरीश भादानी

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उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई !


सोचे बैठा,
ये-वो आसमान तो रचलूं,
उठी न जाने
किस अनहद से
दोनों हाथ बाँध कर मेरे
    मुझसे झूझ गई !


देख बतातो
अपने आगे ठूंठ सरीखे
बीती बातों के करघे पर
कितने बरसों, कितनी साधी
आड़ी तानें, सीधी तानें,
    कितनी छूट गई !


इतने बरसों
कितने थान बुने बोलो तो,
कैसे रंग सने देखो तो,
ओढ़-बिछा क्या-क्या पहनोगे ?
प्रश्नों की अनबूझ पहेली
    मुझमें गूंथ गई !


यह ले दर्पण
झुरियाया तन, फटियल आँखें,
राखोड़ी रंग, फटी-फटी सी
एक चटाई भर देखूं मैं
यही बुना क्या, कहते-कहते
    मुझको कूंत गई !


जाने कब से
वैसी सी ही फिर चाहूँ मैं
गूंजे-अनुगूंजें उतरे फिर,
पळ-पळती बारहखड़ी देखे-
बीती की गुळगांठ खोलते
    पोरें सूज गई


उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
    इतना पूछ गई !