भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ते बादल बुजुर्गों की शफ्क़त / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ते बादल बुजुर्गों की शफ़्कत<ref>मेहरबानी</ref> बने धूप में लड़कियां मुस्कराती रहीं
जब से जाना कि अब कोई मंज़िल नहीं मंज़िलें राह में आती-जाती रहीं

रात परियाँ फ़रिश्ते हमारे बदन मांगकर बर्फ़ में जल रहे थे मगर
कुछ शबीहे<ref>तस्वीर</ref> किताबों के बुझते दीये कागज़ी मक़बरों में जलाती रहीं

सारे दिन की तपी साहिली रेत पर दो तड़पती हुई मछलियाँ सो गईं
अपने मिलने की वो आख़िरी शाम थी लहरें आती रहीं लहरें जाती रहीं

नंगे पाँव फ़रिश्तों का इक ताइफ़ा<ref>झुंड</ref> आसमाँ से ज़मीं पर उतरने लगा
सर बरहना<ref>नंगे सिर</ref> फ़लकज़ादियाँ<ref>आसमान की बेटियाँ </ref> अर्श से आँसुओं के सितारे गिराती रहीं

इक दरीचे में दो आसुंओं का सफ़र रात के रास्तों की तरह खो गया
नर्म मिट्टी पे गिरती हुई पत्तियां सोने वालों को चादर ओढ़ाती रहीं

शब्दार्थ
<references/>