उड़ान ज़िन्दगी की / महेश सन्तोषी
कोहरों, धुओं, कुहासों के घेरे के बाहर
ऊँची, बहुत ऊँची जाती है ज़िन्दगी की उड़ान
थोड़ा हवाओं के साथ उड़कर तो देखो, पक्षियों-सी
सीटियाँ बजाओ, चहको, आँखों में बसाकर तो देखो!
कभी बासी नहीं पड़ती फूलों की मुस्कान
लोग अन्तरिक्ष को छू रहे हैं, चन्द्रमा पर कूद रहे हैं
हिम्मत और हौसलों के हाथों में आ गया आसमान!
क्या तुमने नदियों से कुछ नहीं सीखा?
कोई नदी पीछे नहीं मुड़ती, आगे, बस आगे ही बहती जाती है
उसके बहावों में होता है आत्मा का जीवित संगीत
हर लहर उत्साहों, उमंगों का एक ज़िन्दा गीत गाती है
पीछे छोड़ जाती है मिट्टी, रेत, गिट्टी, जल जैसा अमृत!
सबको बाँटती आगे बढ़ जाती है
तुम पहाड़ों से हर बात में ऊँचा क़द क्यों नहीं मांगते?
हरियाली से हरियापा, नयी ऊर्जा क्यों नहीं मांगते?
क्या थक गये हो तुम, तो आसमान से थोड़ी-सी ताज़ी ओस मांग लो
आसमान कभी नहीं थकता, हर सुबह ताज़ी ओस बनाते!
ज़िन्दगी नाम है एक शाश्वत प्रवाहित गीता का
अच्छा होता तुम, इसका एक-एक श्लोक जीते, गाते, दुहराते!