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उड़ान हूं मैं / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
चीजों को सरलीकृत मत करो
अर्थ मत निकालो
हर बात के मानी नहीं होते
चीजें होती हैं
अपनी संपूर्णता में बोलती हुयी
हर बार
उनका कोई अर्थ नहीं होता
अपनी अनंत रश्मि बिंदुओं से बोलती
जैसे होती हैं सुबहें
जैसे फैलती है तुम्हारी निगाह
छोर-अछोर को समेटती हुई
जीवन बढता है हमेशा
तमाम तय अर्थों को व्यर्थ करता हुआ
एक नये आकाश की ओर
हो सके, तो तुम भी उसका हिस्सा बनो
तनो मत बात-बेबात
बल्कि खोलो खुद को
अंधकार के गर्भगृह से
जैसे खुलती हैं सुबहें
एक चुप के साथ
जिसे गुंजान में बदलती
भागती है चिडि़या
अनंत की ओर
और लौटकर टिक जाती है
किसी डाल पर
फिर फिर
उड जाने के लिये
नहीं
तुम्हारी डाल नहीं हूं मैं
उडान हूं मैं
फिर
फिर।
राइनेर मारिया रिल्के के लिये