भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा / ‘शुजाअ’ खावर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा
कि इससे तो अच्छा हूँ मैं बेउड़ा

किसी दिन अचानक क़रीब आ के तू
तसव्वुर में मेरे परखचे उड़ा

अभी तक नज़र मैं है मेरा वुजूद
तख़य्युल ज़रा और नीचे उड़ा

जिसे सब समझते थे बे-बालो-पर
वही इक परिंदा क़फ़स ले उड़ा

‘शुजा’ आँधियों कि करो फ़िक्र तुम
वो आयी सहर और मैं ये उड़ा