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उड़ा गयी है हवा आज ये किधर पर्दा / आकिब जावेद
Kavita Kosh से
पड़ा हुआ था ये कबसे सनम इधर पर्दा
उड़ा गयी है हवा आज ये किधर पर्दा।
तेरा मयार नमूदार हो न जाये कहीं
बना ले अपनी हया के लिये नज़र पर्दा।
है इब्तिदा ये मुहब्बत की फूल के जैसे
छिपा-छिपा-सा ही रहता है अब इधर पर्दा
क़रार आता कहाँ है बिना उन्हें देखे
शरीफ इतना हूँ लगता है मोतबर पर्दा।
उतार कर जरा अपना नकाब वह रख दें
इधर-उधर भी उड़े जाए फिर ठहर पर्दा
निभा रहा था अभी साथ कल तलक वह भी
हवा चली तो हुआ है किधर-किधर पर्दा
निग़ाह हमनें जहाँ से छुपा के रक्खी है
चुरा-चुरा के नज़र देखा मगर पर्दा
छुपी हुई है किसी दर्दमंद की गैरत
है क़ीमती-सा लगे हमको माल ज़र पर्दा।
ग़ुनाह कोई कहे हम सबाब कहते हैं
नज़र से चूमते आक़िब हज़ार ग़र पर्दा