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उड़ि चलु पंछी / रामवृक्ष राय 'विधुर'

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उड़ि चलु पंछी उहँवाँ, जहँवाँ सभकर भाग समान रे !
दया-धर्म के दियना जहँवाँ जगमग रोज जरेला,
धनिक-गरीब ऊँच-नीच सभ एकै संग रहेला,
दिनवाँ-रतिया गूँजे जहँवाँ सुख-सान्ती के गान रे !
उड़ि चलु पंछी उहँवाँ, जहँवा सभकर भाग समान रे !
जहाँ दईंत बनि ना अदमी के अदमी खून पियेला,
बकरी-बाघ एक घाटि पर, पानी जहाँ पियेला,
जहाँ लुका के ना मारे, केहू चिरई पर बान रे।
उड़ि चलु पंछी उहँवाँ, जहँवाँ सभकर भाग समान रे !
स्वारथ के मदिरा पी जहँवाँ पागल लोग न होला,
केहू घीव पीये ना, केहू अन्न बिना छछनेला।
उड़ि चलु पंछी उहँवें, ई ना रहे जोग स्थान रे !
उड़ि चलु पंछी उहँवाँ, जहँवाँ सभकर भाग समान रे !