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उड़ीक / नीलाभ
Kavita Kosh से
मेरे दिल में अब भी उसकी उड़ीक बाक़ी है
जो मेरे कानों में कह गई थी
मैं आऊँगी, ज़रूर आऊँगी
और काख़-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिलाऊँगी
एक कर दूँगी ये महल-माडि़याँ
दिन चमकीले हो जाएँगे
शीशे पर पड़ते सूरज के लिश्कारे की तरह
साफ़ पानी से भरे गिलास की तरह
रातें प्रेम में सराबोर होंगी
पसीना बहेगा
पर तेज़ाब की तरह चीरेगा नहीं आँखों को
नई खिंची शराब की तरह मदहोश कर देने वाले दिन होंगे
नए ख़ून के दिन
नए ख़ून के दिनों की तरह