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उड़ीक / मदन गोपाल लढ़ा
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अब छोड़ो भाईजी !
कुण गिनरत करै
इण जगती में
थारी रीस री ।
रळ सको तो
एकामेक हुय जावो
इण मुखौटा आळी भीड़ में
का पछैं म्हारै दांई
खींच लेवो मून
इण पतियारै सागै
कै कदैई तो आवैलो कोई
म्हारी पीड़ परखणियो आवै
भलांई आभै सूं।