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उड़ गए सब आंख के पंछी / सर्वेश अस्थाना

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उड़ गए सब आंख के पंछी
जो कहीं से स्वप्न लाते थे।
कैंसरी आकाश में बारूद सा कुछ
जो हमे बस दृश्य देता अर्थियों के
सीरिंज में जो ज़िंदगी की बूंद से
खनखनी स्वर नज़र आते बर्छियों के
कहाँ रक्खे रेडियो है जो
जन्मान्तरी सम्बन्ध के ही गीत गाते थे।
आंसुओं के ही बने हैं सात सागर हम
फिर ग्लेशियर उनको बना कर हम
मुस्कुराते खिलखिलाते नए जीवन
को दायित्व की गिनती सिखा कर हम।
बन्द कमरे में ज़रा सा ही
सिसकियां गा लौट आते हम।
राक्षसी इन एवरेस्टों की ऊंचाई क्या
क्या पता इस दर्द सागर की हुई गहराई क्या
दूर मंज़िल पर दिया बस टिमटिमाये
रास्ता तो है मगर मालूम नहीं लम्बाई क्या।
है थकन पर पाँव की हर
सूजनो के घावों को
छिपाके पग बढ़ाते हम ।।