उड़ गे चिड़ैयाँ / त्रिलोकीनाथ दिवाकर
चल उड़ गे चिड़ैयाँ
तोंय साथ लेके गो´याँ
नील गगन आरू भू पटल पर
चमकौ तोरो रोइयाँ चल उड़ गे चिड़ैयाँ।
चुनमुन-चुनमुन बोली तोरो
गीतो के धार बहाबै छै
गैया के गल्लॉ में रंटा
सुर में ताल मिलाबै छै
तोरो मधुर संगीत सुनै ल‘
उगलै गोसैयाँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।
पली-बढ़ी के गामों में
उड़े के शिक्षा पैने छै
जो-बूट मटरो के सत्तू
खाय के देही बनैनैैं छै
जखनी-तखनी गामों के
गल्ली बाजै कर-को´याँ.. चल उड़ गे चिड़ैयाँ।
गामों के छोटी चिडैयाँ
शहरो में पंख फैलाबै छै
मातृभाषा अंगिका छोड़ी
दिस दैट बतियाबै छै
चकाचौंध शहरो के देखी
मटमट करै भो´याँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।
शहरो के फैशन के देखी
ओकरो मोन लुभाबै छै
मान मर्यादा आरो प्रतिष्ठा
दोनों हाथंे लुटाबै छै
बाँधलो हवा पानी पाबी क‘
उड़ी गेलै चों´याँ, चल उड़ गे चिड़ैयाँ।