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उड़ रहा मन मेघ बन कर / अमरेन्द्र

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उड़ रहा मन मेघ बन कर,
पाँवों में है नील अम्बर ।

रोम रोमांचित हुए हैं,
उँगलियाँ ज्यों पंचशर हों,
प्राण रसमय, गंधमय हैं,
वायु-वन में ज्यों अगर हों;
बन्द कमलों के नयन में
प्रीत का गुंजार गुन-गुन,
नीड़ में दुबकीं चिरैयाँ
मोद में कल-राग चुनमुन।
है सिहरती देह रह-रह,
धड़कने हैं आज झाँझर ।

सो गये दुख ? सो रहो तुम
भोर उतरा है विभा संग,
देवता कोई अमर, ज्यों
देवताओं की सभा संग;
एक पल में उम्र देखी
बूँद में सागर समाया,
रोशनी सर पर झुकी है,
जा छुपी तलवों में छाया ।
सृष्टि सुखमय, सुख चिरन्तन;
कौन कहता दुख अखम्मर!