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उतना पसारे पाँव / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
जितनी बड़ी हों चादर, ें उतना पसारे पाँव।
सच्ची हृदय की साधना, देती सहारे छाँव।
मैली चदरिया ओढ़ कर, कैसे बढ़ेगी सोच,
भोगी स्वयं जीवन छले, मिथ्या विचारे दाँव।
कल्मष करे अंगार भी, लपटें बुझे तो राख
ऊँचा उठे ज्वाला मुखी, घातक करारे आँव।
बरखा सुखद शीतल करे, जलआपदा है बाढ़,
व्याकुल उफनती है नदी, लीले हमारे गाँव।
फलती मनुजता दीन हित, मनसे मिटा लो स्वार्थ,
हो त्याग तप-बल प्रेम तो, मिलते किनारे ठाँव।