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उतनी ही नहीं हूँ मैं / डिम्पल राठौड़
Kavita Kosh से
मैं उतनी ही नहीं हूँ
जितना तुम
मुझे जानते हो
चन्द्रमा के न दिखने वाले
हिस्से की तरह
आधी मैं अदृश्य हूँ ।
हवाओं के साथ बहती हूँ
रोशनी के हर क़तरे में घुलती हूँ
पेड़ों से गिरे पत्तों की तरह बीतती हूँ
फिर लौट आती हूँ
नए पल्लवों में
अँधेरे में घुलती हूँ
आधी उजाले में
आधी अँधेरे में मिलती हूँ ।
मैं उतनी ही नहीं हूँ
जितना तुम
मुझे जानते हो
मुझमें मेरा बहुत कुछ है
जो बिन जाना
बिन कहा
बिन समझा ही रह जाएगा ।