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उतरते मार्च की चंद तारीखें / संतोष श्रीवास्तव

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आज फिर चली है फागुनी हवाएँ मन हुआ आँगन में फिर महके सफेद फूल जुही के फिर पकी निबोली टपके तोते मँडराएँ मुट्ठी भर आसमान फिर हो जाए अपना-सा आँखे फिर देखे सपने सुहाने कोयल फिर कुहुके
फिर ले आये हवाएँ फागुनी गीतो को
टूटे से छप्पर तक टूटी-सी खिडकी तक तुम देखो मेरी ओर फिर कातरता से कि ला सकते हो सितारे आकाश से तोड्कर मेरे लिये और मैं फिर देखूँ दहलीज के पार उतारे तुम्हारे फटे जूतो को किवाड पर टँगी तुम्हारी रफू पतलून को क्योँ मौसम छल जाता है अक्सर क्योँ याद आता है भूला सब बार बार