उतरी थी शहरे-गुल<ref>फूलों के नगर </ref>में कोई आतिशी किरन<ref>आग वाली</ref>
वो रोशनी हुई कि सुलगने लगे बदन
ग़ारतगरे-चमन <ref>उद्यान को हानि पहुँचाने वाले </ref>से अक़ीदत<ref>श्रद्धा</ref>थी किस क़दर<ref>कितनी अधिक</ref>
शाख़ों ने ख़ुद उतार लिए अपने पैरहन<ref>वस्त्र</ref>
इस इन्तहा-ए-क़ुर्ब<ref>अत्याधिक निकटता</ref>ने धुँदला दिया तुझे
कुछ दूर हो कि देख सकूँ तेरा बाँकपन
मैं भी तो खो चला था ज़माने के शोर में
ये इत्तिफ़ाक़<ref>संयोग</ref>है कि वो याद आ गए म’अन<ref>तत्काल,फ़ौरन</ref>
जिसके तुफ़ैल<ref>कारण</ref>मुहर-ब-लब <ref>होंठ सिले हुए</ref>हम रहे ‘फ़राज़’
उसके क़सीदा-ख़्वाँ <ref>प्रशंसक</ref>हैं सभी अहले-अंजुमन<ref>सभा वाले</ref>
शब्दार्थ
<references/>