उत्तरकांड / कविता वाचक्नवी
उत्तरकांड
.......और तुम बाँधोगे, चिड़ीमार!
किसी गोरैया को
अपने जाल में,
फैलाओगे
अपने प्यार का दाना-दुनका.....
......और, तुम!
रचोगे, फिर षड्यंत्र।
अपनी आँखों से सम्प्रेषित करोगे
प्यार की, आत्मीयता की
ढेरों अभिव्यक्तियाँ।
तुम्हारे प्यार की गंध सूँघने
तुम्हारे प्यार की आँच में
अपने घाव सेंकने
फिर कोई आ जलेगा।
अपनी राजशाही में शांति, सुख के लिए
तुम
फिर दोगे
प्रेम को निर्वासन
और तुम फिर सुनाओगे
अपनी दिग्विजय की कहानियाँ
अपने अश्वमेध की पूर्णाहुति के चारण।
ध्वस्त हुई सत्ताओं के खंडहर पर
रचोगे एक और नव-साम्राज्य की नींव,
गाएँगे फिर से तुम्हारे भाट
तुम्हारी संस्तुति
........और
फिर से लेगी एक नारी
भूमि-समाधि....
हो जाएगी मिट्टी.......।
तुम तब भी रहोगे
मर्यादित
पुरुष
उत्तम!!