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उत्तरपक्ष / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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(एक)
पिताजी कहते हैं-
जब कुछ होना होता है
अपने आप होता है।
सबसे बड़ी चीज़ है वक़्त।

पिताजी कहते हैं-सबसे पहले
यह जानना ज़रूरी है
लहरों में कब जगता है ज्वार
और कब लगता है भाटा।

पिताजी कहते हैं-
कुछ इस तरह सब्र रखना पड़ता है
कि सारी रात चलता रहे कोई
मुर्दे फलाँग-फलाँग कर।

ये पिता-विता जो कुछ कहते हैं
क्या वह ठीक भी है?
बड़ी हैरानी होती है
इन लोगों ने देह जुगाए रखने को
एक नाम दे दिया-सब्र।
इन पिताओं को धिक्कार
पिताओं को धिक्कार!
पिताओं को धिक्कार!

(दो)
हमारे प्राणों के भौरों को बड़ी-बड़ी पिटारियों में बन्द कर
बारीक धागों से लटकाकर रखा गया है।
हम इन्तज़ार में हैं कि हमारे सिर पर जलता आसमान कब टूटकर गिरे।
अब चाहे सफ़ाई की जितनी भी दी जाए दुहाई
हाथधुला गन्दा पानी हमारी आँखों पर से बहता चला जा रहा है।

कभी किताब पर पाँव पड़ जाए कहीं ग़लती से
तो हम अपने माथे से हाथ लगा लेते थे।
अब किसी की देह से पाँव टकरा जाए
तो हम नमस्कार तक नहीं करते।
हमारी नज़रों के सामने ऐसा कोई आदमी नहीं
कि उसके आगे हाथ जोड़कर खड़ा रह सकें।
हमने तंग मोहरी की पैंट इसलिए पहन रखी है
कि घुटने मोड़कर बैठने की ज़रूरत न पड़े,
और हम सारी दुनिया को खूब अच्छी तरह दिखा सकें अपने पाँव।
दुश्मन भी जिससे धोखा खा सकें
इसलिए हमारी कमीज़ों पर फूल,
पत्ते और लताओं के छापेवाली फ़ौजी तैयारी है।
कोई हमें प्रेम के भुलावे में छलना भी चाहे
तो हम कठपुतली की तरह चिहुँक उठते हैं।
अब काने को काना और लँगड़े को लँगड़ा कहते हुए
हमें किसी बात की झिझक नहीं होती।
भले मानुष-सा दीख पड़नेवाला अपना मुखौटा उतारकर
अन्धे कुएँ में फंेक दिया है हमने,
अब हम नहीं चाहते करना किसी की नक़ल।
हमें जो कहना होता है, हम ज़ोर-शोर से कहते हैं
शब्द ही है हमारा ब्रह्म।

तयशुदा राहों पर लाठी और बल्लम चमकाते-चमकाते
हम लगाते रहते हैं हाँक-
हमारी हाँक से हिल उठे यह धरा।