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उत्तरा / चतुर्थ सर्ग / भाग 1 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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कोलाहली प्रभात: आतंक जिज्ञासा:

राति अरातिक तिमिर-निकर पथ घेरि।
करइत छल जगति पर अत्याचार॥
तकर अनत करबा हित अरुणिम भोर।
सहजहि आबि जुमल, विहगक छल सोर॥

अंत अंधकारक, उषाक सुविकास!
दिग्-दिगन्तमे पसरल दिवस प्रकाश॥
गत निशीथ, नभ निर्मल, तिमिर न शेष।
धीर समीरे दैंछ सुखद संदेश॥

छल हलचल बन-जीवन खग-कुल घोल।
उठि देखिअ की घटित, घड़ी अनमोल॥
राजभवन-गगनहु केर क्षितिजक छोर।
उषा किरण क्यौ छिटइल प्रभा अथोर॥

चंचल अंचल पवन प्रभाती मंद।
विकसित दृग दल, हसित बरद अरविंद॥
पुछइल सहचरि सँ-‘कथीक थिक बोल।
ग्राम-नगर पथ सगरी रव उतरोल।

मुखरित लोकारण्य, हृदय आतंक।
प्रातहिँ की थिक बात? बुसिअ अविलंब॥
‘राजकुँवरि! ळम एखनहि सुनल अनथ।
सेनापति कीचक हत निशा निशीथ॥

ने अस्त्रक प्रयोग, ने शस्त्राघात।
अंग भंग नहि, सानल माटिक थिभ,
तहिना कीचक मुइल पड़ल छथि हंत!
हंत शत्रु दुरतक ईदृक् अन्त!!

अछि साश्चर्य लोक, आतंकित चित्त।
गजसहस्र बल सेनापति अत्युग्र॥
कोना कोनये नगरक मुइला जाय?
संग न चर-अनुचर, अनाथ असहाय॥
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क्यौ कहइछ ई थिक दैवी उत्पात।
बजइछ क्यौ, कारण किछु आने बात॥
जाहिएसँ आयलि सैरन्ध्री नारि।
कीचक कामुक रहले रूप निहारि॥

रखइत मनभे पाप कामना नीच।
करय उपद्रव रनिबासहु बिच-बीच॥
कहलि चेताय सुदेष्णा रानी देखि।
गति-विधि भाइक अनुचित-उचित परेखि।
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‘ई रमनी नहि अवला, प्रबला नारि।
देखिअ नहि कुदृष्टि सँ, धर्म विचारि॥
बुझने छी, छथि स्वामी हिनकर यक्ष।
रक्षा हित परोक्ष रहितहुँ प्रत्यक्ष॥

यदि ककरहु कुदृष्टि पड़, हुनि दुर्दब।
संहारक हित उद्यत रहथि सदैव॥
बुझि पड़इछ किछु तहिना सन दुर्योग।
आवि तुलायल एतय क्रूर ग्रहयोग॥”

चिन्तित चित भय कुमरि भाय लग जाय।
देखलि, रानी विस्मित कनइत हाय!!
साश्रु नयन गद्गट शोकाकुल हेरि।
सैरन्ध्री प्रबोधि रहली कत बेरि॥
.... ....... ..... .....

रानि कहलनि ‘हन्त! क्ही अनुमानि।
कारण तोही अनर्थक, कही प्रमानि॥
हम बुझलहुँ रूपसि? तोँ कुसुमक बृन्त।
किनतु आइ की नहि तोँ अहि-विषदंत!!

सुनि सैरन्ध्रीं नीरब स्तब्ध मलान-
‘देवि! छमिअ, अजान हम किछु नहि जान॥
हम अबला, प्रबलक लग छी निरुपाय।
दैबे रहथि अनाथक एक सहाय॥’

नगर जनपदक बीछ व्याप्त आतंक।
कीचक वध दुर्घटना पसरि प्रसंग॥
कोनो यक्ष पक्षक अछि पड़ल कुदृष्टि।
संविधान रहवाक प्रयोजन इष्ट॥

ग्रंह क शान्ति दैवी उपद्रवक हेतु।
क्यौ कह, सैन्य सुसज्जित रक्षा सेतु॥
पुर बिच आगम-निर्गम पर प्रतिबन्ध।
अहनिस सजग सुरक्षा-दलक प्रबन्ध॥

जे अजान ओ आन जनपदक लोक।
से नहि रहय पाब पुर बिच निर्धोख॥
जांच सभक हो जेहिसँ एतय न आँच।
तखन कुलक कल्याण, विषय ई सांच॥

क्यो कहइत छल, कीचक पापे गेल।
मत्स्य-जलाशय कीचे साफे मेल॥
बाउल क्यौ, एकक मुइने नहि खेद।
यमक परिकने समर नगर निर्बंद॥

कुरु-कुलक चिन्ना: अज्ञातवासी पांडवक संकेत-पता

क्रमशः कीचक-वध घटना संवाद।
सगर देशमे पसरल वाद-विवाद॥
छल अवध्य योद्धा विराटकेर मल्ल।
लड़ि-अड़ि सकइछ भौम, भीष्म वा शल्य॥

कुरुराजक मनम आशंका व्याप्त।
की पांडव अज्ञातवास संप्राप्त?
मत्स्य देशमे बसि कीचक वधि देल।
एखनहि पता लगायब, उचित न दे॥

दूत पठौल सुयोधन चुपहि बिचारि,
हृदय जनिक जरइत रह बन्धु-अरारि।
बुझि-सुझि सभ वृतांत फिरिअ अविलंब,
चार चक्षु थिक नृपक नीति अवलम्ब॥
गेल गुप्तचर, तुरितहिँ नगर विराट।
कीचक-वध कारण किछु कहल सुझाय॥
“रमणी एक रूपसो बसि रनिवास।
फाँसल सेनापतिकेँ रूपक पाश॥

यक्ष जकर पति रक्ष गुप्त बलवान।
हतल सहज भावेँ रहस्य अनुमान॥
किछु परदेशी गुणी राजकुल जाय।
अर्थनीति-रणरीतिक बनल सहाय॥

वर्षाभ्यंतर शिक्षा-कला प्रबन्ध।
पशुपालन धन-धान्यक वृद्धि प्रसंग॥
छथि विराट नृप बूढ़, गूढ़ व्यवहार।
उत्तर-शंखश्वेत दुइ राजकुमार॥
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कन्या धन्या उत्तराक गुण रूप।
संग समाज विराटक बनल अनुप॥
अछि विराट राज्यक विकास बर्घिष्णु।
किन्तु कीचकक वध घटना अत्युष्ण॥

ओतय एखन चर्चा अछि विषय विशेष।
कीचक-बध कर्त्ता क्यौ बल-अतिरेक॥
मल्ल एक अछि वल्लब नवे नियुक्त।
शारीरिक क्षमता मे भीमे उक्त॥

भय सकैछ ओ सैरन्ध्री-अनुरक्त।
क्करहु छै संकेत एहन अभियुक्त॥
जकर कारणेँ कोचक मारल गेल।
से सैरन्ध्री दु्रपदा प्रकृतिक मेल॥
किन्तु न क्यौ बजइछ ई, अति आतक।
के बृहन्नला ग्रंथिक तंतिक कक?