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उत्तरा / तृतीय सर्ग / भाग 1 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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कला-शिक्षण:

थिक कला यदपि, सकला विद्या अछि एतय व्याप्त।
ओंकार-शुकी मातंगी संगीते क आप्त॥
शारदा स्वयं वीणा-वादिनि श्यामा नर्तिनि।
कमला लय लीला-कमल हस्त मुद्रा वर्तिनि॥

नाचधि पुरारि पद सुनि नचारि नटराज नाम।
वंशी टेरथि त्रिभंगि नटवर ब्रजधाम श्याम।
नारद वैरागी महती वीणा हित बेहाल।
प्रलयहु में लय पर नचइछ काली-महाकाल॥

के जीव-जन्तु जग आनन्देँ नहि हो गवैत।
मस्ती मे ककर चरण नहि अपनहि हो नचैत?
चिन्तन अथवा भाव क आलोडन जौँ चलैछ।
तँ ककर न आँखि-भौंह कर-अंगुली संग दैछ॥
के करुण गलित जे नहि मुक्त स्वर हो कनैत।
प्रिय दर्शन सँ नहि ककर नयन-मम अछि मचैत॥
घनश्याम दशनेँ उन्मादित नाचय मयूर।
गावय लगइछ दादुर घन-धुनिएँ एक सूर॥

सरिता नचइत चलइछ विभोर सिन्धु क सड.ोर।
सागरहु स्वयं रचि जल-तरंग बजवैछ जोर॥
तरु लता पवन-नर्तित झुमइछ प्रमुदित विभोर।
चेतन-अचेतनहु सबतंरि संगीत क हिलोर॥

ककर न उर पर संगीतक ध्वनि-रेखा निखार।
के जनतु एतय जे नृत्य-नाट्य रस सँ उधार॥
सब चहइछ अपन शोक केँ बनबय श्लोक मधुर।
सभ पठवय चाहय ध्वनि क दत प्रिय-प्रणय विधुर॥
तेँ गीत आप्त संगीत व्याप्त सभ्यहु असभ्य।
नृत्य क गति कंपन हृदय-स्पंदन जेना लभ्य॥
अछि भोग-योग सब तरि नाद क संवाद इष्ट।
रस-भावमयी संगीत कला विद्या विशिष्ट॥

शिक्षण संस्थान:

अंतःपुर सँ सटलहु हटले किछु रहल जाय।
ओ बहरधरा रहितहुँ बाहर नहि कहल जाय॥
अन्दर बाहर दुहु केन्द्र-बिन्दु रेखा मिलाय।
संस्थान कला-शिक्षण हित छल निर्मित सजाय॥

भवन क बहिरंगहु कारु-शिल्प रचना रंजित।
कत नृत्य-निरत किन्नर यक्ष क प्रतिमा मंडित॥
द्वार क अन्तर नटराज क तांडव छवि टंकित।
जत लास्य-कोमल पार्वती क इंगित-अंकित॥

साज-सज्जा-वेश-परिवेश:

छल वाद्य-वृन्द्र राखल आँजल-माँजल सजाय।
नूतन-पुरातनहुँ देश-देश प्रचलित मड.ाय॥
‘तत’ तार-वितत वीणा-विपंचिका रुचि रचाय।
एकतारहु सँ शततारहु धरि बहुविध जोगाय॥

‘सुषिर’हु बिबरित सुर वेणु प्रभृति गुंजित मधु धुनि।
‘आनद्ध’ मृदंग-मुरज गंभीर ध्वनित धन जनि॥
कल रणित मंजु ‘घन’ वाद्य विविध धातुक मजि-मुजि।
उपकरण जते उपयुक्त सकल राखल सजि-सुजि॥

कत धनि-जनि गितगाइनि कलावती जुटलि ततय।
अति प्रीति पुरातन भास रीति मत गीति जतय॥
कत कलकंठी कोकिल - बयनो सुर - धुनि साधथि।
किछु कहथि भजन, किछु सरस कबित-गीतहु गाबथि॥

कत तान-मूर्छना राग - रंजना अभ्यासथि।
किछु राग-रागिनी नव-पुरातनी अध्यासथि॥
किछु वीणा-बेणुक स्वर-तरंग केर लय रंगति।
कर मुरज-मृदंग क थाप-टेक-परन क संगीत॥

कहुँ नृत्योचित परिधान विधानेँ स्यूत-सजल।
कंचुकी शाटिका अन्तर अद्य-परिधान रचल॥
आंगिक आभूषण कनक रजत मणि-रत्न रमणि।
श्यामल सह-वेणी, शीर्ष चन्द्रिका चूड़ामणि॥

न्व रत्न खचित शुचि कर्णफूल कुण्डल कपोल।
नासा-मणि भूषण नखत प्रभा हीरक क गोल॥
ग्रिमहार, वाहु केयूर, पाणि कंकरण अमोल।
कांची किंकिनि धुनि कटि तट, पद नूपुरक बोल॥

नयन क अंजन, अधर क रंजन, शुचि अंगराग।
अनुलेपन-चन्दन-अगरु-तगरु कुंकुम पराग॥
अभिनयक वेश-परिवेश रूपकहु रूपणीव।
सब साधन सज्जित रसावेश अभिनन्दनीय॥

शिक्षनीय ओ शिक्षक:

छथि राजकीय परिवार क संतति शिक्षणीय।
ने शास्त्रा क रुख, ने शस्त्र क तिख रुखि रक्षणीय॥
लोकक रुचि, वेदक शुचि-दुहु तट केँ बैधनीय।
शिक्षक मधुमती दिशा सुसंगत प्रवहनीय॥

ने शिशु चंचल, ने प्रौढ़ रूड-दुहुसँ दूरे।
ने कठिन बज्र, मृदु मोम न-दुहुक मध्य तीरे॥
ने जड़ लाड़े, ने गर्म-नर्म मधु शरद तुलित।
हो स्वच्छ सरस शिक्षा-भाजन क्यौ नबतूरे॥
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त्हिना ओहने क्यौ चढ़थु शिक्षक क शीर्ष-शृंग।
पौरुष निर्मम, स्त्रैण क अति मम-दुहु सँ असंग॥
ओ कलावन्त, नहि व्यसन-वासना लेश अंग।
ने नर ने नारी, आत्मावत् जे हो अलिंग॥

तेहने छथि वृहन्नला नामक, क्लौ क्लीब नवल।
छथि केवल कला विषयमे ओ अक्लीव सबल॥
अछि शिक्षण क्रम किखु दिनसँ नव पद्धतिक चलित।
शिष्या सुविदित उत्तरा नृत्य-अभिनय क कलित॥