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उत्तरा / द्वितीय सर्ग / भाग 2 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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क्रिया-कौशल:

वितल सकय कत, एकत रहितहुँ पाँचो पृथक रहेछ।
जनु पंचांबु प्रदेश पंचनद निज निज धार बहैछ॥
कखनहु निशि-निशीथमे संगत पांडव बन्धु मिलैछ।
जेना सिन्धु-सागरमे घुरि-फिरि नद-पंचक कमड़ैछ॥

कंक युधिष्ठिर द्यूत खेलि बढ़बथि नृप मानस मोद।
बल्लब भीम मल्ल पटु पाकक, सभक करैछ विनोद॥
अर्जुन वृहन्नला नामे रचि क्लीवक वेश विचित्रा।
अन्तःपुरमे नृत्य-अभिनयक शिक्षण देथि पवित्र॥
ग्रन्थिक नकुल तुरगम वाहन फेरथि नव-नव चालि।
तन्तिपाल सहदेव सहज गोधन सम्बर्धन-शालि॥
सभक क्रिया-कौशलक निरीक्षण कय विराट भूपाल।
वेतन मान बढ़ाओल, फल कतव्य तरुक तत्काल॥

सैरन्ध्री पुरन्ध्रीक शृंगार-साधिका:

अन्तःपुर मे ओम्हर द्रौपदी सैरन्ध्रीक प्रवेश।
राजभवन रूपसी लोकनिमे शृंगारक आवेश॥
परिधानक किछु नव प्रकार, भूषणहुक गढ़ति प्रवीण।
अंगराग, सौरभ-परागहुक रुचि शुचि प्रथा नवीन॥

लता पल्लवित रहितहुँ फूक फुलइतहुँ पहिलुक वाग।
जनि बसन्त-श्री आबि सजाओल नव रस सुरभि पराग॥
बुझि बड़इछ श्यामा यामिनिके ऋतु शारदी तुलाय।
कयल सरस ज्योत्स्ना-शृंगारित शुचि-रुचि नवे बनाय॥

प्रौढहु वयस सुदेष्णा रानि के रूप-छवि क नव रंग।
देखि नवोढहु लोकनि बिस्मिता छथि शृंगार प्रसंग॥
वृद्धविराटहु नृपतिक चित अछि चकित-चमत्कृत देखि।
बुझल कोनहु शिल्पी क तूलिका रंजित चित्र विशेषि॥

रुचिर कलेवर रहओ, यदि न पुनि सुरुचि सजाओल जाय।
बिनु खराज चढ़ने मणि-रत्न न सहज सहज द्युति-दाय॥
किनतु गीत-स्वर भाव मनोहर ककरहु कण्ठ बसाय।
धनि से जकर हृदय-रस निःसृत कवित रसिक रसदाय॥
रूपवती अनतःपुरिका-लोकनिक शृंगारित रूप।
व्यंजित करइछ कलाकारिका कर रुचि केहन अनूप॥
सैरन्ध्रीक क्रिया-कौशल पुर-पुरन्ध्रीक बिच सोर।
पद्मिनीक रस सुरभि भरय क्यौ-आयलि अरुणिम भोर॥

कुसुम-कीट कीचकक कुदृष्टि:

अस्तु, प्रसिद्धिक फूल फुलायल गाम गमगमा गेल।
दूर-दूर धरि सौरभ लय वन-वात महमहा देल॥
किन्तु कोट कुसुमक पराग हित गुपचुप अन्तर लीन।
करइत छल शृंगार-वासना वेधन मनक मलीन॥

पहलवान बलवान उत्तरक माम, विराटक सार।
रानिक अनुज, दनुजसन देखिअ मनुजहु पशु साकार॥
कीचक नीच बीच वंशक जनु रन्ध्र लागि वातास।
बाजि उठैछ सुरहु बेसुर सैरन्ध्रिक रूप पिआस॥
अंगित-इंगित काम-तरंगित दनुजोचित मनुजोक।
भेलि वितृष्ण सुदेष्णा लखि दुवृत्ति दुष्ट अनुजोक॥
कहलन्हि, सती-प्रकृति सैरन्ध्री ज्वलित तेज उद्दाम।
काम-कीटके भस्म छनहि करते, भेलह विधि बाम॥

बुझल हमर अछि यक्ष एकर पति छथि रक्षक सन्नद्ध।
अन्तर्हितहु एकर रक्षण मे सतत दक्ष कठिबद्ध॥
कतवहु कहथ, नीच कीचक उर उसरि न होइछ दृष्ट।
सुनय न हित उपदेश सुहृदहुक बिगड़ल जकर अदृष्ट॥

कीचक कीच नीच मलपूरित नाली बहवा देल।
गंहु केँ जनु अंग-मगध तट कलुषित करवा लेल॥
किन्तु जाह्नवी जलधारा जनु होय न अशुचि अथंच।
सैरन्ध्रीक पवित्र चरित्र उपर नहि खलक प्रपंच॥