उत्तर काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास
वशिष्ठ कथित मुक्तिमार्ग
पद्धटिका छंद
वसिष्ठ- तुम आदि मध्य अवसान एक।
अरु जीव जनम समुझों अनेक।।
तुमहीं जो रची रचना बिचारि।
तेहि कौन भाँति समुझौं मुरारि।।43।।
सब जानि बूझियत मोहिं राम।
सुनिए सो हौं जग ब्रह्म नाम।
तिनके अशेष प्रतिबिंब जाल।
त्यइ जीव जानि जग मैं कृपाल।।44।।
निशिपालिका छंद
लोभ मद मोह बस काम जबहीं भयो।
भूलि गये रूप निज बीधि तिनसों गयो।।45।।
(दोहा) मुक्तिपुरी दरबार के, चारि चतुर प्रतिहार (दरबार)।
साधुन को सतसंग सम (समता) अरु संतोष विचार।।46।।
यह जग चक्रब्यूह किय, कज्जल कलित अगाधु।
तामहँ पैठि जो नीकसै, अकलंकित सो साधु।।47।।
दोधक छंद
देखतहूँ एक काल छियेहूँ।
बात कहै सुनै भोग किये हूँ।।
सोवत जागत नेक न क्षोभै।
सो समता सबही महँ सोभै।।48।।
जी अभिलाष न काहु की आवै।
आये गये सुख दुःख न पावै।।
लै परमानंद सों मन लावै।
सो सब माँझ संतोष कहावै।।49।।
आयौं कहाँ अब हौं कहि का हौं।
ज्यौं अपना पद पाऊँ, सो टाहौं।।
बंधु अबंधु हिये महँ जानैं।
ता कहँ लोग बिचार बखानैं।।50।।
पद्धटिका छंद
जग जिनको मन तव चरण लीन।
तन तिनको मृत्यु न करति छीन।।
तेहि छनही छन दुख छीन होत।
जिय करत अमित आनँद उदोत।।51।।
जो चाहै जीवन अति अनंत।
सो साधै प्राणायाम मंत।।
शुभ रेचक पूरक नाम जानि।
अरु कुंभकादि सुखदानि मानि।।52।।
जो क्रम क्रम साधै साधु धीर।
सो तुमहि मिलैं याही सरीर।।
राम- जग तुम तैं नहिं सर्वज्ञ आन।
अब कहौ देव पूजा विधान।।53।।
तोमर छंद
वसिष्ठ- ‘सतचित्प्रकाश प्रभेव। तेहि वेद मानत देव।
तेहि पूजि ऋषि $$ रुचि मंडि। सब प्राकृतन को छंडि।।54।।
पूजा यहै उर आनु। निव्याज धरिए ध्यानु।
यों पूजि घटिका एक। मनु कियो याग अनेक’।।55।।
(दोहा) यह पूजा अद्भुत अगिनि, सुनि प्रभु त्रिभुवन नाथ।
$$वसिष्ठ जी ने एक बार हिमालय पर जाकर घोर तपस्या की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। वसिष्ठ जी ने कहा-‘देव पूजा विधान बताइए।’ इसके उत्तर में शिवजी ने जो कुछ कहा उसी को इन दो पद्यों 54-55 में वसिष्ठजी राम के सामने दोहरा रहे हैं।
सबै शुभाशुभ वासना, मैं जारी निज हाथ।।56।।
झूलना छंद
यहि भाँति पूजा पूजि जीव जो भक्त परम कहाइ।
भव भक्तिरस भागीरथी महँ देहि दुखनि बहाइ।।
पुनि महाकर्त्ता महात्यगाी महाभोगी होइ।
अति शुद्ध भाव रमै रमापति पूजिहै सब कोइ।।57।।
(दोहा) राग द्वेष बिन कैसहूँ धर्माधर्म जो होइ।
हर्ष शोक उपजै न मन, कर्त्ता महा सो लोइ।।58।।
भोज अभोजन रत विरत, नीर सरस समान।
भोग होइ अभिलाष बिन, महा भोगता मान।।59।।
जो कछु आँखिन देखिए, वाणी बणयों जाहि।
महातियागी जानिए, झूठो जानै ताहि।।60।।
तोमर छंद
जिय ज्ञान बहू ब्यौहार। अरु योग भोग विचार।
यहि भाँति होइ जो राम। मिलिहैं सो तेरे धाम।।61।।
निशि-बासर वस्तुबिचार करै मुख साँच हिये करुना धनु है।
अघ निग्रह संग्रह धर्मकथा सु-परिग्रह साधन को गनु है।।
कहि केशव योग जगै हिय भीतर बाहेर भोगन सो तनु है।
मन हाथ सदा जिनके तिनके बन ही घर है, घर ही बनु है।।62।।
(दोहा) लेइ जो कहिए साधु अन लीन्हे कहिए बाम।
सबकौ साधन एक जग, राम तिहारौ नाम।।63।।