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उत्तर काण्ड / भाग 5 / रामचंद्रिका / केशवदास

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रूप बहिक्रम सुरभि सम, वचन रचन बहु भेव।
सभा मध्य पहिचानिये, नर नरदेव न देव।।85।।
आयी जब अभिषेक की, घटिका केसवदास।
बाजे एकहि बार बहु, दुंदुभि दीह अकास।।86।।

झूलना छंद

तब लोकनाथ विलोकि कै रघुनाथ को निज हाथ।
सविशेष सों अभिषेक की पुनि उच्चरी शुभ गाथ।।
ऋषिराज इष्ट वसिष्ठ सों मिलि गाधिनंदन आइ।
पुनि वालमीकि बियास आदि जिते हुते मुनिराइ।।87।।
रघुनाथ शंभु स्वयंभु (ब्रह्मा) को निज भक्ति दी सुख पाइ।
सुरलोक को सुरराज को किय दीह निर्भय राह।।
विधि सों ऋषीशन सौं विनव करि पूजियौ परि पाइ।
बहुधा दई तपवृक्ष की सब सिद्धि सिद्ध सुभाइ।।88।।
(दोहा) दीन्हों मुकुट विभीषणै, अपनो अपने हाथ।
कंठमाल सुग्रीव को दीन्हीं श्रीरघुनाथ।।89।।

चचरी छंद

माल श्रीरघुनाथ के उर शुभ्र सीतहि सो दयी।
आरपियो हनुमंत कों तिन दृष्टि कै करुनामयी।।
और देव अदेव बानर याचकादिक पाइयो।
एक अंगद छोड़ि कै ज्वइ जासु के मन भाइयो।।90।।
अंगद- देव हौ नरदेव वानर नैर्ऋतादिक धीर हौ।
भरत लक्ष्मण आदि दै रघुवंश के सब वीर हो।
आजु मोसम युद्ध माँड़हु एक-एक अनेक कै।
बाप को तब हौ तिलौकद दीह देहुँ बिवेक कै।।91।।
राम- (दोहा) कोऊ मेरे वंश मैं, करिहै तीसों युद्ध।
तब तेरो मन होइगो, अंगद मोसों शुद्ध।।92।।

रामराज्य वर्णन

भुजंगप्रयात छंद

अनंता (पृथ्वी) सबै सर्वदा शस्ययुक्ता।
समुद्रावधिः सप्त ईती (प्रवर्षण, अतिवर्यण, चूहे, टिड्डी, तोते, स्वराष्ट्र की तथा शत्रु की सेना जिनसे खेती को हानि पहुँचती है।) विमुक्ता।।
सदा बृक्ष फूले तत्र सोहैं।
जिन्हैं अल्पधी कल्प साखौ विमोहैं।।93।।
सबै निम्नगा (नदी) छीर के पूर पूरौ।
भयी कामगो सी सबै धेनु रूरी।।
सबै बाजि स्वर्वाजि ते तेज पूरे।
सबै दंति स्वर्दंति तै दर्प रूरे।।94।।
सबै जीव हैं सर्वदानंद पूरे।
क्षमी संयमी विक्रमी साधु शूरे।।
युवा सर्वदा सर्व विद्या विलासी।
सदा सर्व संपत्ति शोभा प्रकासी।।95।।
चिरंजीव संयोग योगी अरोगी।
सदा एक पत्नीव्रती भोग भोगी।।
सबै शील सौंदर्य सौगंधधारी।
सबै ब्रह्मज्ञानी गुणी धर्मचारी।।96।।
सबै न्हान दानादि कर्म्माधिकारी
सबै चित्त चातुर्य्य चिंताप्रहारी।।
सबै पुत्र पौत्रादि के सुक्ख साजैं।
सबै भक्त माता पिता के बिराजैं।।97।।
सबै सुंदरी सुंदरी साधु सोहैं।
शची सी सती सी जिन्हैं देखि मोहैं।।
सबै प्रेम की पुण्य की संगिनी (हवेली, घर) सी।
सबै चित्रणी पुत्रिणी पद्मिनी सी।।98।।
भ्रमै संभ्रमी, यज्ञ शोकै सशोकी।
अधर्मै अधर्मी, अलोकै (अपलोक, बदनामी, अयश) अलोकी (बदनाम, कलंकी)।।
दुखै तौ दुखी, ताप तापाधिकारी।
दरिद्रै दरिद्री, बिकारै बिकारी।।99।।

चौपाई

होम धूम मलिनाई जहाँ। अति चंचल चलदल है तहा0161।।
बाल-नाश है चूड़ाकर्म्म। तीक्षणता आयुध के धर्म्म।।100।
लेत जनेऊ भिक्षा दानु। कुटिल चाल सरितानु बखानु।।
न्याकरणैं द्विज वृत्तिन हरै। कोकिलकुल पुत्रन परिहरै।।101।।
फागुहि निलज लोग देखिए। जुवा देवारी को खेलिए।।
नित उठि बेझोई मारिए। खेलत में केहूँ हारिए।।102।।

दंडक

भावै जहाँ बिभिचारी, वैद्य रमैं परनारी,
द्विजगन दंडधारी, चोरी परपीर की।
मानिनीन ही के मन मानियत मान भंग,
सिंधुहि उलंधि जाति कीरति शरीर की।।
मूलै तौ अधोगतिन पावत हैं केसोदास,
मीचु ही सो है वियोग इच्छा गंगानीर की।
बंध्या बासनानि जानु, बिधवा सुबाटिकाई,
ऐसी रीति राजनीति राजै रघुवीर की।।103।।
(दोहा) कविकुल ही के श्रीफलन, उर अभिलाष समाज।
तिथि ही को क्षय होत है, रामचंद्र के राज।।104।।

दंडक

लूटिबे के नाते पाप पट्टनै तौ लूटियतु,
तोरिबे को मोहतरु तोरि डारियतु है।
घालिबे के नाते गर्व घालियतु देवन के,
जारिबे के नाते अघ-ओघ जारियतु है।।
बाँधिवे के नाते ताल बाँधियतु केसोदास,
मारिबे के नाते तौ दरिद्र मारियतु है।
राजा रामचंद्र जू के नाम जग जीतियतु,
हारिबे के नाते आन जन्म हारियतु है।।105।।