उत्तर देती जिसकी पुकार का नहीं धरा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
जो दुख की उल्काझाड़ियों के अंगार-ज्वाल से क्षार-क्षार,
झंकारहीन जिसके जीवन का भग्न तार,
जो मांस-चाम से मढ़ा अस्थिकंकाल मात्र,
क्या दे सकते तुम उसकी चेतन आत्मा को ऐसा भोजन?
जिससे उसकी जीवन-सरिता में नव उमंग की लहर उठे!
जो अनुप्राणित कंकाल न जीवन की मांसल आकांक्षा से,
धृति-मति, अमर्ष, शंका-वितर्क से, चिन्ता से, आशंसा से,
जो नहीं जलाया गया चिता में किसी भ्रान्ति अथवा प्रमाद से?
गत आदर्शों की व्याख्याओं का विडम्बनामय विज्ञापन,
जिसके समक्ष है गूढ़ व्यंग्य का उदाहरण।
क्या भर दोगे तुम उसके तम-घन में ऐसी निर्धूम किरण?
जिससे उसके चेतना-केन्द्र में ध्रुव प्रतीति की गन्ध भरे!
जो पीता पानी अश्रुभरा,
उत्तर देती जिसकी पुकार का नहीं धरा,
उत्तर देतस जिसकी पुकार का नहीं गगन;
साँसों का संचालन करता जिसमें न पवन!
छाया देता जिसको न विटप!
बातें करता जिससे न दिवस का व्यस्त पहर।
बातें करता जिससे न निशा का रिक्त पहर!
क्या खिला सकोगे तुम उसके पथ में ऐसा मुस्कान-सुमन?
जिससे उसकी अन्तर्वीणा का तार बजे!
पर जब तुम स्वयं सुलगते होकर खिन्न दीन?
जब खोज रहे तुम स्वयं तिमिर में चरण-चिह्न।
जब व्याघातों से धरासीन तुम दिवसचन्द्र-से ज्योतिहीन?
जब अपने केन्द्रबिन्दु से विचलित शून्यमात्र तुम अंकहीन!
तब भर सकते क्या तुम युग-मन में नव विहाग का ऐसा स्वर?
जिससे उसकी तन्द्रा का कुलिश कपाट खुले!
(‘किशोर’, मार्च, 1974)