उत्तर पुरुष उवाच / कुबेरनाथ राय
पिता क्षमा करो
फेंकता हूँ कंठलग्न यज्ञोपवीत यह
यह कंठलग्न मृत-सर्प बड़ा ही दुर्वह है।
मैं एक प्रकृति-सन्तान लघुमानव मात्र
तो भी थमा दिया तुमने महाकाव्यों का
धधकता अग्निपात्र, जिसमें
मृत मन्वन्तरों की हड्डियाँ जलती हैं
कि मैं उर्धवाहु ढोता फिरूँ सहर्ष
होड़ लूँ तुम्हारे द्रुतगामी नभचर
रथन्तर और बृहद् सुपर्ण बाजिराज से?
पिता क्षमा करो
यह दायित्व बड़ा ही दुर्वह है।
मेरे पिता तुम जानते नहीं
मेरे कंठ में अवरुद्ध वैखरी क्रुद्ध
जीभ पर स्फोट क्षत बन जाती है
(मेरे मुख में है घाव)
मेरे मस्तक में छटपटाते उद्गान
भीतर ही भीतर स्नायुकेन्द्र छिन्न-भिन्न
कर जाते हैं :
(ओठों पर चॅंपी तर्जनी)
मेरे हृदय में उमड़ते क्रोध समुद्र
दब कर शिरा-शिरा मथता है
(मेरे रक्त में है उद्दाम हाहाकार)
मेरे मनदर्पण की आकृतियाँ
मेरे ही त्राहि से चटककर टूट जाती हैं
(मेरा मन है, टूटे मृत्पायों की ढेरी)
मेरी आत्मोपलब्ध अनुष्टुप-भंगिमा
भीतर भीतर गलित हो दुर्वाच्य बन जाती है
(ओह मेरी दुर्गन्धमयी भाषा!)
अतः हे पिता!
फेंकता हूँ ऋणात्मक उत्तराधिकार यह
मुझे अस्वीकार है तुम्हारा
देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण का
यह हिसाब-किताब!
इसी से फेंकता हूँ कंठलग्न यज्ञोपवीत का
मृत सर्प!
डबरे में, कचरे में, वलेद पाप पंक में
आ गिरा है मनुष्य जाति का सूर्य
अश्रुपात कर रहा है मनुष्य जाति का सूर्य
विपन्न है मनुष्य जाति का सूर्य
अत: हे पिता!
यह लो तुम अपना महाकाव्यों का अग्निपात्र
मुझे उद्धार के लिए पुकार रहा है धरती का सूर्य।
इधर देखोः
क्लेद और पंक के भीतर अवरुद्ध असहाय
फंस गया है आज अपनी धरती का पवित्र सूर्य
हमारे और उसके परिश्रम का मधुमय सूर्य
अब मैं उसे धो-पोंछकर पंकमुक्त, बाहर उछालता हूँ
ऊपर स्थित हो सकेगा वह
नक्षत्रों के बीच औंधे मधुपात्र सा
अपनी ही पार्थिव महिमा से प्रतिष्ठित वह
जिससे झर-झर बरसा सके सोना और मधु
हमारी कच्ची उत्तरकालीन फसलों पर
हमारी सद्योजात उत्तरकालीन पीढ़ी पर
जिससे पकहर हो सके खेत यह, और
सार्थक हो सके यह धरती का जनजीवन।
मेरे पिता!
मुझे नहीं चाहिए अपार्थिव, दिव्य उत्तराधिकार
अतः लौटाता हूँ तुम्हें अतीत के मृत्पात्रों का
धधकता अग्निपात्र!
मुझे क्षमा करो, यह उत्तराधिकार दुर्वह है।
[ नेहरू युवा केन्द्र की स्मारिका से ]