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उत्तर / महेन्द्र भटनागर

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नहीं किंचित् बनूंगा
दीन,
या
ग़मगीन।

क्षति स्वीकारता हूँ !

धूर्त
गुप-चुप
रच रहे षड्यंत्रा,
बैठे हैं लगाए घात,
कैसे कर लिया
तुमने
अनोखा फ़ैसला
सुन
एकतरफ़ा बात ?

तुमसे
है नहीं अनुनय-विनय
धिक्कारता हूँ !
यों कभी भी
हो न सकता हीन !

क्षति स्वीकारता हूँ !

अपने
चाटुकारों की
विगर्हित क्षुद्र
इच्छा-पूर्ति के हित,
कर दिया तुमने
क्षणिक अधिकार से वंचित ?
तुम्हारे
मसख़रे निर्लज्ज
गंदे खल घिनौने
रूप को
दुत्कारता हूँ !

जान लो
अच्छी तरह पहचान लो —
होता नहीं इससे
तनिक भी क्षीण !

क्षति स्वीकारता हूँ !