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उत्सव की देह / सोम ठाकुर
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पतझर के हस्ताक्षर हों न कही भूल से
मन वसंत होने से रह जाए, देखना
कहाँ गई किरन- बेल नेहा- सींची हुई
पाँव- तले रिश्तों की धरती नीची हुई
रात की नज़र लगी उजाले के वंश को
सूर्य बीज बोने से रह न जाए, देखना
अंकुर की नींद खुले फैले आकाश में
उत्सव की देह बँधे बाँहों के पाश में
चाहत के चेहरे पर नफ़रत के दाग है
यह कलंक धोने से रहना जाए, देखना
मंज़िल की टेर सुनें गलियारे गाँव के
गुनहगार हों तो बस प्यार के गुनाह के
हरी सदी के द्वारे अंगड़ाई भोर की
स्वप्न यह सजाने से रह न जाए, देखना