उदबोधन / सच्चिदानंद प्रेमी
बाँध उमर की फैली चादर
चलो कहीं अब और मदारी!
जग के हलचल कोलाहल में
दुनिया कहती है मुझे भिखारी!
डगर-डगर में भारी जमघट,
जिगर-जिगर में है घबराहट,
बात यहाँ की बड़ी निराली-
घर-घर दिखता जैसे मरघट!
अब तो बूढी हुई बनरिया,
ले चल बांधे नेह गठरिया,
जहाँ तमाशा बने न मेरे-
ढलते जीवन की लाचारी!
डमरू तेरा आज न सक्षम,
मुरली में भी रहा नहीं दम,
किस बूते पर फिर अजमाएँ-
वीणा के तारों पर पंचम!
झोली भी है फटी पुरानी,
मित्रों की भी आना-कानी ;
देती कुछ भी कभी न दुनिया
कहती लेकिन मुझे भिखारी!
प्रणय-गीत चंचल अधरों पर,
नृत्य-निरत भौरें पलकों पर,
सूने दिल की मुग्ध मयूरी-
थिरक रही श्यामल अलकों पर!
जाने आज हुआ क्यों आना,
तेरा यह संगीत सुनाना,
आकुल-व्याकुल अंतर तर में-
कैसी तेरी छवि है न्यारी!