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उदयपुर यात्रा विचार / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

तब मैना स्वर सगुन विचारा। चलहु चोख जनि लावहु वारा॥
परसों प्रथम पहर पहराहु। क्षेम कुशल भेंटव सब काहु॥
योगी ध्यान धनी को धारा। निज आसन चलु राजकुमारा॥
राति कुंअर कंह नींद न आऊ।...
आय महथ तव कीन्ह जोहारा। तबहिं कुंअर कहवे अनुसारा॥
नृप ढिग वीर विवेक सिधाओ। मम विनती कर जोरि सुनाओ॥

विश्राम:-

विधि वश हम अमरे इतै, वहुत कृपा किहु राव।
एक वचन विनती करों, मो कंह करिय पखाव॥206॥

चौपाई:-

वीर विवेक वचन अस कहई। कवन वचन मनमें अस अहई॥
राजा के तुम सम महि आना। तव आज्ञा शिरपर करि जाना॥
राज महथ विनती सुनु मोरी। एकहुं बातन लावहु खोरी॥
मो कंह कृपा करै जो राऊ। देखां मातु पिता कर पाऊं॥
एकपुत्र हमही तिनकेरे। विधि वगरायउ कौनिउ फेरे॥

विश्राम:-

अव जीवत जो देखहूं, मों तन तपति बुझाय।
जन्म सुफल कै लेखहूं, पगु जल पियो अघाय॥207॥

चौपाई:-

अस सुनि महथ वदन भौ कैसे। सूर्य ग्रहण मुख पीयर जैसे॥
गदगद स्वर किहु महथ उचारा। ऐसो वचन न बोलु कुमारा॥
कहे कुंअर जनि मोहि बुझावहु। प्रात चलव हम जाय सुनावहु॥
आतुर बहत कुंअर मन पाऊ। तब चलि महथ नृपति पंह आऊ॥
कह्यो निकट ह्वै कुंअर कहानी। राजा सुनत मीन बिनु पानी॥

विश्राम:-

तेहि क्षण राजा चलि भयो, जंहवा राजकुमार।
जाय प्रकास्यो मुख वचन, वहु विनती अनुसार॥208॥

चौपाई:-

कवन चूक अस हमते भयऊ। जेहिते कुंअर विलग चित कयऊ॥
जबते कुंअर तुमहिं हम पाये। मनको शंसय सकल गंवाये॥
प्रगटी शिव गौरी की दाया। कन्या देई कुंअर हम पाया॥
लेहु तिलक भोगहु महि राजू। मैं अब करों भजन करि काजू॥
बहु प्रकार परबोधयो राऊ। कुंअर के मन एको नहि आऊ॥

विश्राम:-

कुंअर कह्यो सुनु भूपती, आज्ञा मेटि न जाय।
मैं विनती एक भाषहूँ, ढीठ वचन बकसाय॥209॥

चौपाई:-

सावधान ह्वै सुनिये देवा। अत दिन रहे तुम्हारी सेवा।
अब कृपालु ह्वै आयसु करिये। दूजी वात न मनमंह धरिये॥
हम अस सेवक बहुत तुम्हारे। मातु पिता कंह हमहि दुलारे॥
उनकी सेवा जो नहि आओं। कैसे मोक्ष मुक्ति गति पाऊं॥
जो जगमें योगी मिस रहतों। तो अस वचन न तुम सन कहतों॥

विश्राम:-

सगुन सुदिन दिन सबहिं विधि, कालि पहर दिन मांह।
आन न करों पयान विनु, शपथ करों करनाह॥210॥

चौपाई:-

कुंअर भेद समुझो नरनायक। अब नहि कुंअर बुझावन लायक।
तब नृप आपन म समुझाऊ। जो विधि लिखा सो कवन मिटाऊ॥
ध्यानदेव अन्तःपुर जाई। जंह पटसारे पलंग विछाई॥
बदन ढांकि सोओ नरनाहा। चाह गई रनिवासन मांहा॥
सुनि सुधि सिगरे भये उदासा। सगरे नगर भवों घरवासा॥

विश्राम:-

विषमे घर घर जन परे, सब परिजन परिवार।
सुनत सकल मन मोहैऊ, जनु वन परो उजार॥211॥

चौपाई:-

ताहि दिवस सवके उपवासा। हाथिहिं अन्न न घोडहिं घासा॥
सदावरत पाओ नहिं काऊ। देन दुकान करो नहि कोऊ॥
कृषी कर्म नहीं कियो किसाना। याजक जन घर परेउ भगाना॥
कायथ कमल दुवात न खोली। ता दिन पान न फेरु तमोली॥
राजा रानी ज्ञान गंवाई। चारि पहर निशि रोय बिताई॥
कुंअरि साथ की सवै सहेली। तिनके शिरहिं मोत जनु खेली॥

विश्राम:-

जस सरवर जल सुखेऊ, तस भो नगर स्वभाव।
अम्बुज जल कुम्हिलानेऊ, जलचर ठांवहिं ठांव॥212॥