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उदास औरतें / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
उदास औरतें
सूना आसमान देखने का
समय नहीं पातीं
अतीत में झाँकती हैं
तो छूट जाता है
हाथ से सूप
डगमगाती है पृथ्वी
लगते हैं
भूकम्प के झटके
उदास औरतें
जला लेतीं हैं जीभ
और निपोरती हैं दाँत
समय से पहले भागती हैं
समय से पहले पहुँचकर
साड़ी में फँसा लेती हैं कीलें
उनकी पलकें पत्थर सी भारी हैं
फिर भी बचा लेती हैं वे
पानी में बहती चीटियाँ
उदास औरतें समझ लेती हैं
पक्षियों का रुदन
और साथ रोती हैं
उदास औरतों को
सूने महल बुलाते हैं
पर वे उर्मिला नहीं बनती
वे स्वयं चुनती हैं
अपने ठिकाने
पर कहीं रुकती नहीं
उदास औरतों को
लिखी गई चिट्ठियाँ इसीलिए
उन तक कभी पहुँचती नहीं