उदास धागा / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
एक पहेली की तरह
उलझी हुई
मेरी ज़िन्दगी
जिसे-
जितना ही सुलझाता हूँ उतना ही उलझ जाता हूँ!
मेरी कल्पना की डोर
किसी घाटी में कट गई है
और मेरे सपनों की पतंग
शहर के चौराहे पर बने
बिजली के तारों में
उलझ गई है।
कविता के कुंतल को
सुलझाने वाली ऊँगलियाँ
बिजली के तारों को
छूने से सहम रही हैं।
मेरे बौने हाथों का
लंबा धागा
अपनी रंगीन पतंग के
विछोह से उदास है।
मैं अपनी कटी पतंग को
देख तो सकता हूँ
छू नहीं सकता!
मेरी पतंग
जो बिजलियों के पहरे में
कैद है...
हो सकता है
कि उसे छूने पर
ये बिजलियाँ भी मुझे छू लें
इनकी जंजीरे
मुझे भी बाँध लें
और तब...
कहीं मेरी ही आग से
मेरी पतंग भी न जल जाए
मैं अपनी पतंग को
बिजलियों के घेरे में
भले ही छोड़ सकता हूँ
मगर इन्हें जलने नहीं दूँगा!
ऐ शहर के चौराहों पर रहनेवाली बिजलियों!
रखो मेरी पतंग
अपने हीँ पास रखो...
मेरी साँसों से एक बयार उठेगी
जो तुम्हें झकझोर कर
मेरी पतंग को
मेरे आँगन के
कोने में खड़े
हनुमान की ध्वजा से
लिपटा देगी
और मैं अपनी विजय पर
मुस्कुरा उठूँगा!
मेरी प्रतीक्षा
उतनी बौनी नहीं है-
जो कोई हँसे-
मेरा सपना किसी
टुटपुंजिए का
सपना नहीं है
जो नीलाम हो जाए.
मेरी साख वैसी नहीं
जो कोई दिवालिया कहे मुझे
मैंने उधार पर
व्यापार नहीं किया है।
मेरी मस्ती
कोई उधारी हुई मस्ती
नहीं है
मेरे हाथ में पड़ा
पतंग का धागा उदास है!
मेरे सपने उदास हैं।
मेरी रंगीन कल्पना
बिजली के तारों से
उलझ गई है
एक मैं हूँ मैं
जो-
सपने देखे जा रहा हूँ!
है कोई
जो मुझसे मेरी कल्पनाओं को
छीन ले? ...
अग्निशीला में की गई
साधना से
चिलचिलाती धूप का
स्वागत है!
स्वागत है