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उदित अगस्ति पन्थ जल सोखा / दिनेश कुमार शुक्ल

अमौर को छोड़ और किस ठौर
आँखों को मिलतीं वे आँखें
वे पलकें
कि टपटपा कर आमों ने बिछा दिये पाँवड़े
जीवन के मेले में खोकर भी खोयी नहीं
और कभी सोयी नहीं
उन किशोर देशों की
मीन-मृग-खंजन-सी आँखें
हमारे हृदय में

छूटा देस हम भी परदेसी हुए
कहें कि देश ही बदल गया
पाँव के नीचे से खिसक गयी अपनी जमीन
आ गयी उसकी जगह
अनजानी जमीन अनजाने जीव
अनजानी आँखें
जायजा लेती-सी
दिन में ही
लाल-हरे-नीले-पीले रंगों में दहकती
बीनाई से महरूम
उन आँखों के पास ताकत थी ग़ैब की
कि कुछ भी नहीं बच पाता
ढका-छिपा-अनदेखा उन आँखों के सामने
बचती ही नहीं थी किसी की लाज
कपड़े तो कपड़े
त्वचा तक का आवरण खींच कर उतार ले जाने वाली
वे आँखें देख लें जिसे एक बार
कुछ भी नहीं बचता फिर उसके भीतर
हाड़-मांस-आँतें और आत्मा तक
खींच कर निकाल ले जातीं वे आँखें सर्वस्व

उन सर्वग्रासी आँखों की पैठ से
बचाया मुझे
अमौर की उन्हीं किशोर आँखों ने
जब एक रात स्वप्न में
वे फिर उदित हुईं
हमारे ही हृदय के खोये आकाश में
खोया हुआ आकाश
हमें वापस लौटाती हुई

अगस्त्य नक्षत्र-सी प्रकाशमान
धुले-पुँछे आसमान में
उदय हो रही थीं वे आँखें
और
दुनिया की सब आँखों के
आँसू सोख रही थीं।