उद्धव-गोपी संवाद भाग ३ / सूरदास
ज्ञान बिना कहुँवै सुख नाहीं ।
घट घट व्यापक दारु अगिनि ज्यौं, सदा बसै उर माहीं ॥
निरगुन छाँड़ी सगुन कौं दौरतिं, सुधौं कहौ किहिं पाहीं ।
तत्व भजौ जो निकट न छूटै, ज्यौं तनु तैं परछाहीं ॥
तिहि तें कहौ कौन सुख पायौ, जिहिं अब लौं अवगाहीं ।
सूरदास ऐसैं करि लागत, ज्यौं कृषि कीन्हें पाही ॥1॥
ऊधो कही सु फेरि न कहिऐ ।
जौ तुम हमैं जिवायौ चाहत, अनबोले ह्वै रहिए ॥
प्रान हमारे घात होत है, तुम्हारे भाऐं हाँसी ।
या जीवन तैं मरन भलौ है, करवट लैहैं कासी ॥
पूरब प्रीति सँभारि हमारी, तुमकौं कहन पठायौ ।
हम तौ जरि बरि भस्म भईं तुम आनि मसान जगायौ ॥
कै हरि हमकौं आनि मिलावहु, कै लै चलिये साथै ।
सूर स्याम बिनु प्रान तजति हैं, दोष तुम्हारे माथैं ॥2॥
घर ही के बाढ़े रावरे ।
नाहिन मीत-वियोग बस परे, अनब्यौगे अलि बावरे ॥
बरु मरि जाइ चरैं नाहिं तिनुका, सिंह को यहै स्वभाव रे ।
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे, जोग जहर न खवाब रे ॥
ऊधौ हमहिं सीख कह दैहौ, हरि बिनु अनत न ठाँव रे ।
सूरदास कहा लै कीजै, थाही नदिया नाव रे ॥3॥
हमकौं हरि कौ कथा सुनाउ ।
ये आपनी ज्ञान गाथा अलि, मथुरा ही लै जाउ ॥
नागरि नारि भलैं समझैंगी, तेरौ बचन बनाउ ।
पा लागौं ऐसी इन बातनि, उनही जाइ रिझाउ ॥
जौ सुचि सखा स्याम सुंदर कौ, अरु जिय मैं सति भाउ ।
तौ बारक आतुर इन नैननि, हरि मुख आनि दैखाउ ॥
जौ कोउ कोटि करै, कैसिहूँ बिधि, बल विद्या व्यवसाउ ।
तउ सुनि सूर मीन कौं जल बिनु, नाहिं न और उपाउ ॥4॥
ऊधौ बानी कौन ढरैगौ, तोसैं उत्तर कौन करेगौ ।
या पाती के देखत हीं अब, जल सावन कौ नैन ढरैगौ ।
बिरह-अगिनि तन जरत निसा-दिन, करहिं छुवत तुव जोग जरैगौ ।
नैन हमारे सजल हैं तारे, निखत ही तेरौ ज्ञान गरैगौ ॥
हमहिं वियोगऽरु सोग स्याम कौ, जोग रोग सौं कौन अरैगौ ।
दिन दस रहौ जु गोकुल महियाँ, तब तेरौ सब ज्ञान मरैगौ ॥
सिंगी सेल्ही भसमऽरु कंथा, कहि अलि काके गरैं परैगौ ।
जे ये लट हरि सुमननि गूँधीं, सीस जटा अब कौन धरैगौ ॥
जोग सगुन लै जाहु मधुपुरी, ऐसे निरगुन कौन तरैगो ।
हमहिं ध्यान पल छिन मोहन कौं, बिन दरसन कछुवै न सरैगौ ॥
निसि दिन सुमिरन रहत स्याम कौ, जोग अगिनि मैं कौन जरैगौ ।
कैसैंहु प्रेम नेम मोहन कौं, हित चित तैं हमरैं न टरैगौ ।
नित उठि आवत जोग सिखावन, ऐसी बातनि कौन भरैगौ ।
कथा तुम्हारी सुनत न कोऊ, ठाढ़े ही अब आप ररैगौ ॥
बादिहिं रटत उठत अपने जिय, को तोसौं बेकाज लरैगौ ।
हम अँग अँग स्याम रँग भीनी, को इन बातनि सूर डरैगौ ॥5॥
ऊधौ तुम ब्रज की दसा बिचारौ
ता पाछैं यह सिद्ध आपनी, जोग कथा बिस्तारौ ॥
जा कारन तुम पठए माधौ सो सोचौ जिय माहीं ।
केतिक बीच बिरह परमारथ, जानत हौ किधौं नाहीं ॥
तुम परवीन चतुर कहियत हौ, संतत निकट रहत हौ ।
जल बूड़त अवलंब फेन कौ, फिरि फिरि कहा सकत हौ ॥
वह मुसकान मनोहर चितवनि, कैसैं उर तैं टारौं ।
जोग जुक्ति अरु मुक्ति परम निधि, वा मुरली पर वारौं ॥
जिहिं उर कमल-नयन जु बसत हैं, तिहिं निरगुन क्यौं आवै ।
सूरदास सो भजन बहाऊँ, जाहि दूसरौ भावै ॥6॥
ऊधौ हरि काहे के अंतरजामी ।
अजहुँ न आइ मिलत इहँ अवसर, अवधि बतावत लामी ॥
अपनी चोप आइ उड़ि बैठत, अलि ज्यौं रस के कामी ।
तिनकौ कौन परेखौ कीजौ, जे हैं गरुड़ के गामी ॥
आई उघरि प्रीति कलई सी, जैसी खाटी आमी ।
सूर इते पर अनखनि मरियत, ऊधौ पीवत मामी ॥7॥
निरगुन कौन देस कौ बासी ?
मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझतिं साँचि न हाँसी ॥
कौ है जनक कौन है जननी, कौन नारि को दासी ?
कैसे बरन, भेष है कैसौ, किहिं रस मैं अभिलाषी ?
पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी ।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरौ, सूर सबै मति नासी ॥8॥
कहियौ ठकुराइति हम जानी ।
अब दिन चारि चलहु गोकुल मैं, सेवहु आइ बहुरि रजधानी ॥
हमकौं हौंस बहुत देखन की, संग लियैं कुबिजा पटरानी ।
पहुनाई ब्रज कौ दधि माखन, बड़ौ पलँग, अरु तातौ पानी ॥
तुम जनि डरौ उखल तौ तोर्यौ, दाँवरिहू अब भई पुरानी ।
वह बल कहाँ जसोमति कैं कर , देह रावरैं सोच बुढ़ानी ॥
सुरभी बाँटि दई ग्वालनि कौं, मोर-चंद्रका सबै उड़ानी ।
सूर नंद जू के पालागौं, देखहु आइ राधिका स्यानी ।9॥
सुनि सुनि ऊधौ आवति हाँसी ।
कहँ वै ब्रह्मादिक के ठाकुर, कहाँ कंस की दासी ॥
इंद्रादिक की कौन चलावै; संकर करत खवासी ।
निगम आदि बंदीजन जाके, सेष सीस के बासी ॥
जाकैं रमा रहति चरननि तर, कौन गनै कुविजा सी ।
सूरदास-प्रभु दृढ़ करि बाँधे, प्रेम-पुंज की पासी ॥10॥
काहे कौं गोपिनाथ कहावत ।
जौ मधुकर वै स्याम हमारे, क्यौं न इहाँ लौं आवत ॥
सपने की पहिचानि मानि जिय, हमहिं कलंक लगावत ।
जो पै कृष्न कूबरी रीझे, सोइ किन बिरद बुलावत ।
ज्यौं गजराज काज के औरै, औरे दसन दिखावत ।
ऐसैं हम कहिबे सुनिबे कौं , सूर अनत बिरमावत ॥11॥
साँवरौ साँवरी रैनि कौ जायौ ।
आधी राति कंस के त्रासनि, बसुद्यौ गोकुल ल्यायौ ॥
नंद पिता अरु मातु जसोदा, माखन मही खवायौ ।
हाथ लकुट कामरि काँधे पर,बछरुन साथ डुलायौ ॥
कहा भयौ मधुपुरी अवतरे, गोपीनाथ कहायौ ।
ब्रज बधुअनि मिलि साँट कटीली, कपि ज्यौं नाच नचायौ ॥
अब लौं कहाँ रहे हो ऊधौ, लिखि-लिख जोग पठायौ ।
सूरदास हम यहै परेखौ, कुबरी हाथ बिकायौ ॥12॥
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै ।
मूरी के पातनि के बदलैं, कौ मुक्ताहल देहै ॥
यह व्यौपार तुम्हारो ऊधौ, ऐसैं ही धर्यौ रैहै ।
जिन पै तैं लै आए ऊधौ, तिनहिं के पेट समैहै ॥
दाख छाँड़ि के कटुक निबौरी, को अपने मुख खैहै ।
गुन करि मोही सूर सावरैं, को निरगुन निरबैहै ॥13॥
मीठी बातनि मैं कहा लीजै ।
जौ पै वै हरि होहिं हमारे, करन कहैं सोइ कीजै ॥
जिन मोहन अपनैं कर काननि, करनफूल पहिराए ।
तिन मोहन माटी के मुद्रा, मधुकर हाथ पठाए ॥
एक दिवस बेनी बृंदावन, रचि पचि बिबिध बनाइ ।
ते अब कहत जटा माथे पर, बदलौ नाम कन्हाइ ॥
लाइ सुगंध बनाइ अभूषन, अरु कीन्ही अरधंग ।
सो वै अब कहि-कहि पठवत हैं, भसम चढ़ावन अंग ॥
हम कहा करैं दूरि नँद-नंदन, तुम जु मधुप मधुपाती ।
सूर न होहिं स्याम के मुख को, जाहु न जारहु छाती ॥14॥
ऊधौ तुम हौ निकट के बासी ।
यह निरगुन लै तिनहिं सुनावहु, जे मुड़िया बसैं कासी ॥
मुरलीधरन सकल अँग सुंदर, रूप सिंधु की रासी ।
जोग बटोरे लिए फिरत हौ, ब्रजवासिन की फाँसी ॥
राजकुमार भलैं हम जाने, घर मैं कंस की दासी ।
सूरदास जदुकुलहिं लजावत, ब्रज मैं होति है हाँसी ॥15॥
जा दिन तैं गोपाल चले ।
ता दिन तैं ऊधौ या ब्रज के,सब स्वभाव बदले ॥
घटे अहार विहार हरष हित, सुख सोभा गुन गान ।
ओज तेज सब रहित सकल बिधि, आरति असम समान ॥
बाढ़ी निसा, बलय आभूषन, उन-कंचुकी उसास ।
नैननि जल अंजन अंचल प्रति,आवन अवधि की आस ॥
अब यह दसा प्रगट या तन की, कहियौ जाइ सुनाइ ।
सूरदास प्रभु सो कीजौ जिहिं, बेगि मिलहिं अब आइ ॥16॥
हम तौ कान्ह केलि की भूखी ।
कहा करैं लै निर्गुन तुम्हरौ, बिरहिन विरह बिदूषी ॥
कहियै कहा यहै नहिं जानत, कहौ जोग किहि जोग ।
पालागौं तुमहीं से वा पुर, बसत बावरे लोग ॥
चंदन अभरन, चीर चारू बर, नेकु आपु तन कीजै ।
दंड, कमंडल, भसम, अधारी, तब जुवतिनि कौं दीजै ॥
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की, ऊधौ दृढ़ ब्रत पायौ ।
करी कृपा जदुनाथ मधुप कौं, प्रेमहिं पढ़न पठायौ ॥17॥