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उद्बोधन / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

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मिले न ‘प्रियतम’-ज्योत्स्ना के उस
महामिलन के सुख का छोर:
अंतर के आनंद-सिंधु में
फिर उठने दे एक हिलोर।
तोड़ एक पल में जड़ता के
शत-शत बंधन, हे स्वच्छंद!
जाग प्रेरणा की राका में
फिर मेरे प्राणों के छंद!
बड़े भाग्य! पथ भूल आ गया
प्रेम-पर्व भी अबकी बार;
उठ, फिर तीर्थ बने त्रिभुवन का
मेरे कवि-जीवन का ज्वार।
उठ, अवरुद्ध श्वास, इन उत्सुक
घड़ियों में किसका सोना;
नीरवता का वंश-खंड जब
चाह उठे वंशी होना!