उद्बोधन / सुमित्रानंदन पंत
खोलो वासना के वसन,
नारी नर!
वाणी के बहु रूप, बहु वेश, बहु विभूषण,
खोलो सब, बोलो सब,
एक वाणी,--एक प्राण, एक स्वर!
वाणी केवल भावों--विचारों की वाहन,
खोलो भेद भावना के मनोवसन
नारी नर!
खोलो जीर्ण विश्वासों, संस्कारों के शीर्ण वसन,
रूढ़ियों, रीतियों, आचारों के अवगुंठन,
छिन्न करो पुराचीन संस्कृतियों के जड़ बन्धन,--
जाति वर्ण, श्रेणि वर्ग से विमुक्त जन नूतन
विश्व सभ्यता का शिलान्यास करें भव शोभन;
देश राष्ट्र मुक्त धरणि पुण्य तीर्थ हो पावन।
मोह पुरातन का वासना है, वासना दुस्तर,
खोलो सनातनता के शुष्क वसन,
नारी नर!
समरांगण बना आज मानव उपचेतन मन,
नाच रहे युग युग के प्रेत जहाँ छाया-तन;
धर्म वहाँ, कर्म वहाँ, नीति रीति, रूढ़ि चलन,
तर्क वाद, सत्व न्याय, शास्त्र वहाँ, षड दर्शन;
खंड खंड में विभक्त विश्व चेतना प्रांगण,
भित्तियाँ खड़ी हैं वहाँ देश काल की दुर्धर!
ध्वंस करो, भ्रंश करो, खँडहर हैं ये खँडहर,
खोलो विगत सभ्यता के क्षुद्र वसन
नारी नर!
नव चेतन मनुज आज करें धरणि पर विचरण,
मुक्त गगन में समूह शोभन ज्यों तारागण;
प्राणों प्राणों में रहे ध्वनित प्रेम का स्पंदन,
जन से जन में रे बहे, मन से मन में जीवन;
मानव हो मानव--हो मानव में मानवपन
अन्न वस्त्र से प्रसन्न, शिक्षित हों सर्व जन;
सुंदर हों वेश, सब के निवास हों सुंदर,
खोलो परंपरा के कुरूप वसन,
नारी नर!
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९