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उद्भव कथा / आभा पूर्वे

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हे माँ गंगे
धरती पर उतरने से पहले
कहाँ रहती थी तुम ?
किस लोक में ?

कैसा होगा लोक
कितने लोकों का लोक
तभी तो समा सकी होगी
तुम्हारी इतनी जलराशि ।

नहीं विश्वास होता कि
तुम्हारा निवास
विष्णु के वाम अंगुष्ठ में होता था
और वहीं से निकली थी
हरहराती
बदहवास-सी
जिसे देख कर
भयभीत हो गए थे
तीनों लोक के देवतागण
प्रार्थना में जुट गये उनके हाथ
कहीं पर्वत न टूट पड़े
कहीं धरती न धँस जाय
जुट गये थे देवताओं के हाथ
पितामह ब्रह्मा के आगे ।

देवताओं के भय से भयभीत
समेट लिया था ब्रह्मा ने
गंगा को
अपने कमण्डलु में ।

नहीं यह कैसे हो सकता है
कि तुम्हारी यह जलराशि
किसी कमण्डलु में
समा गई होगी
और यह कैसे हो सकता है
कि तुम्हारा हरहराता वेग
शिव की जटाओं में बँध जाए ।

मन नहीं मानता
लेकिन पुराण कहते हैं
और सारा लोकमानस ही
मानता है
तो मैं ही क्यों कहूँ
कि तुम
धरती पर आने से पहले
भगवान विष्णु के
वाम अंगुष्ठ में निवास नहीं करती थी
ब्रह्मा ने तुम्हें
अपने कमण्डलु में
नहीं रख लिया था
और फिर यह भी क्यों कहूँ कि
तुम्हारा सारा वेग
शिव की जटाओं में
सिमट कर नहीं रह गया था ।

लेकिन मैं
शायद इस पहेली से
बचने के लिए ही
अपने मन को समझा लेती हूँ कि
गोमुख का शिलाखंड ही
विष्णु का वाम अंगुष्ठ है
गोमुख ही
ब्रह्मा का कमण्डलु है
और हिमालय की
ऊँची-ऊँची बिखरी-फैली चोटियाँ
शिव की जटाओं से
कम कहाँ लगती हैं ।

यह अगर सच भी हो
तो हे माता
मन यह मानता ही नहीं कि तुम
विष्णु के वाम अंगुष्ठ में
निवास नहीं करती थी
और वहाँ से सीधे
ब्रह्मा के कमण्डल में
फिर देवाधिदेव
शिव की जटाओं में नहीं उतरी ।

ऐसा ही हुआ होगा, माँ
हे पतित पावनी
मोक्षदायिनी
त्रिभुवन विहारिणी
त्रिपथगा
महानदी गंगे !

सूर्य की किरणों से दीप्त
शैल-शिखरों से
तरल चन्द्रमणि की तरह उतरती
पुण्यवती गंगे
तुम नहीं आती धरती पर
तब क्या होता सगर के
साठ हजार पुत्रों का
जो तुम्हारे जलस्पर्श मात्रा से
जी उठे थे ।

साठ हजार पुत्रा
और सगर का वह विजय-यज्ञ
देवताओं पर विजय पाने का यज्ञ
इसी से तो
यज्ञ में व्यवधान हेतु
चुरा लिया था इन्द्र ने
यज्ञ का घोड़ा
और बाँध दिया था उसे
पाताल लोक में जा कर
एक तपस्यारत ऋषि के आश्रम के बाहर ।

सगर के पुत्रों ने
खोज शुरु की
तो पहुँच गये पाताल लोक भी
यज्ञ के घोड़े को देखा
ऋषि आश्रम के बाहर में बँधा
सोचा यह सब
इस ऋषि का ही खेल है;
क्या-क्या न कहा
सगर के पुत्रों ने
अपमानित होता हुआ ऋषि का क्रोध
रुक न सका
हाथ में जल लिया
और सगर के साठ हजार पुत्रों को
शापित किया ।

लहक उठे सगर-पुत्रा
भष्म का ढेर हो गये सगर-पुत्रा
पृथ्वी लोक पर मच गई खलबली
हाहाकार का प्रलय
सगर के भष्मीभूत पुत्रा
प्रेत बन कर भटकने लगे ।
आखिर सगर के पुत्रा अंशुमाला ने
उनकी मुक्ति के लिए
प्रयास किया
लेकिन सब व्यर्थ सिद्ध हुआ ।

तब दिलीप का संकल्प जागा
वह प्रयास भी सिद्ध हुआ
अभागा ।

बढ़ा जाता था
हाहाकार का प्रलय और भी
आखिर उठ खड़ा हुआ भागीरथ
(दिलीप की दूसरी प्रिया का पुत्रा)
उठा कर हाथ अपना
संकल्प में इतना कहाµ
मैं अपने पूर्वजों की मुक्ति हेतु
धरा पर लाऊँगा
मुक्तिदायिनी गंगा को ।

भटकती आत्माओं को
पतितपावनी गंगा
मोक्ष देगी
और फिर
उतर आई गंगा
शिव की जटाओं से होती हुई
नीचे भारत भूमि पर ।
माँ गंगे
तुम्हारे जन्म की
कितनी-कितनी कथाएँ प्रचलित हैं,
तुम्हारी जितनी धाराएँ
उतनी ही तुम्हारी जन्म-कथाएँ भी ।

कहने के लिए
यह भी कहा जाता है कि
हजारों-हजार वर्ष पूर्व
जब हिमालय
अपने उथल-पुथल के दौर था
तब वहाँ
एक नदी हुआ करती थी
नाम था उसका ‘इन्द्रब्रह्म’ ।
चट्टानें उठीं
तो इन्द्रब्रह्म की धारा बँध गयी
नदी झील बन गयी ।
लेकिन नदी को कौन रोक पाया है
नदी का अर्थ ही होता है, प्रवाह
झील बनी इन्द्रब्रह्म नदी ने
फिर किनारों को तोड़ा
और वही
तीन धाराओं में फूट पड़ी
जो धारा पश्चिम में बही
उसको नाम मिला सिन्धु
जो धारा पूर्व की ओर बही
वह कहाई, ब्रह्मपुत्रा
और जो धारा
दक्षिण की ओर बही
वही बनी गंगा
गंगा, जो विन्ध पर्वतमाला से
रोके जाने पर
पूर्वगामिनी बन गयी
और अपनी धारा को समेटती हुई
बंगाल की जमीन को
आन्दोलित करती हुई
सागर में
तब से समा रही है
युगों-युगों से बहती आ रही गंगा ।