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उद्विग्न-व्याकुलता / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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मेघ पुनः संदेशा लाए,
मग में कोई नयन बिछाए |
कैसे आऊँ द्वार तुम्हारे ,
तेरे-मेरे नेह के पथ में
घिर आते हैं जग के साए |

निशा गयी और प्रात हुआ अब,स्वप्न-आकृति छूटी मन की |
एक-दूसरे से मिल न सके , यह विडम्बना है जीवन की ||

धूसर दिवस आज प्रिय तुम बिन,
विप्लव की बेला में दुर्दिन |
मुखर मौन संकेत बताते ,
अश्रुपूर्ण सारी रातों भर
विरहा मन रहता है खिन ||

ज्ञान सुप्त है, क्रिया नहीं कुछ, इच्छा क्यों पूरी हो मन की |
एक-दूसरे से मिल न सके , यह विडम्बना है जीवन की ||

अमराई की रुत गयी अब ,
संवेदन के भ्रम-जाल थे सब |
मोती पृथक-पृथक होना ही था
फैली माला टूट गयी जब |

भूले खग की नियति अभागी,फिर क्यों छाँव मिले मधुबन की |
एक-दूसरे से मिल न सके, यह विडम्बना है जीवन की ||