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उधर परिन्दे को जब आसमान खींचता है / राजेश रेड्डी

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उधर परिन्दे को जब आसमान खींचता है ।
इधर ज़मीन पे कोई कमान खींचता है ।

वो खींच लेता है मेरी जुबाँ से अपनी ही बात,
कुछ और बोलूँ तो ज़ालिम जुबान खींचता है ।

चले ही जाते हैं इक और ख़्वाब के पीछे,
सराब बनके यक़ीं को गुमान खींचता है ।

बड़े मकान के बेटे के सब तो है फिर भी,
हमें वो गाँव का कच्चा मकान खींचता है ।

ये वक़्त है वो ज़मींदार जिसका कारिन्दा,
हर एक साँस का हमसे लगान खींचता है ।

कोई तो है जो बुरे वक़्त का बिछाता है जाल,
जो देके दाने परों से उड़ान खींचता है ।

नज़र उठाता नहीं बज़्म में किसी की तरफ़,
कुछ इस तरह से भी वो सबका ध्यान खींचता है ।

है ज़िन्दगी कि कोई टी० वी० सीरियल यारब,
बिना कहानी के क्यूँ दास्तान खींचता है ।